पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/३४२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३४७
प्रेमाश्रम

कायल हो जाते थे। हरि-इच्छा भी अवश्य कोई प्रबल वस्तु है, नही तो क्या मेरे सारे खेल यो बिगड़ जाते? कोई चाल सीधी ही न पड़ती? धनलालसा ने मुझसे क्या-क्या नहीं कराया। मैंने अपनी आत्मा की, कर्म की, नियमों की हत्या की, और एक सतीसाध्वी स्त्री के खून से अपने हाथो को रंगा, पर प्रारब्ध पर विजय न पा सका। अभीष्ट का मार्ग अवश्य दिखायी दे रहा है, पर मालूम नहीं वहाँ तक पहुँचना नसीब होगा या नहीं। इस क्षोभ और नैराश्य की दशा में उन्हें बार-बार गायत्री की याद आती, उसकी प्रतिभा-मूत ऑखो में फिरा करतीं, अनुराग में डूबी हुई उसकी बातें कानो में गूंजने लगती, हृदय से एक ठंडी आह निकल जाती।

ज्ञानशंकर को अब नित्य यह धड़का लगा रहता था कि कहीं गायत्री मुझे अलग न कर दे। वह चिट्ठियाँ खोलते डरते थे कि कहीं गायत्री का कोई पत्र न निकल आये। उन्होने उसको कई पत्र लिखे थे, पर एक का भी उत्तर न आया था! इससे उन्हें और भी उलझन होती थी। मायाशंकर के पत्र अवश्य आते थे, पर इससे उन्हें शान्ति न मिलती थी। बनारस में क्या हो रहा है यह जानने के लिए वह व्यग्न रहते थे, पर ऐसा कोई न था जो वहाँ के समाचार विस्तारपूर्वक उनको लिखता। कभी-कभी वह स्वयं बनारस जाने का विचार करते, लेकिन डरते किं न जाने इसका क्या नतीजा हो। यहाँ तो उसकी आँखों से दूर पड़ा हैं, सम्भव हैं कि कुछ दिनों में उसका क्रोध शान्त हो जाय। मुझे देख कर वह कही और भी अप्रसन्न हो जाये तो रही-सही आशा भी जाती रहें।

इस भाँति तीन-चार महीने बीत गये। भादो का महीना था। जन्माष्टमीं आ रही थी। शहर में उत्सव मनाने की तैयारी हो रही थी। कई वर्षों से गायत्री के यहाँ यह उत्सव वडी धूमधाम से मनाया जाता था। दूर-दूर से गवैये आते थे, रासलीला की मडलियों बुलायी जाती थी, रईसो और हाकिमो को दावत दी जाती थी। ज्ञानशंकर ने समझा, गायत्री को यहाँ बुलाने का यह बहुत ही अच्छा बहाना है। एक लम्बा पत्र लिखा और बड़े आग्रह के साथ उसे बुलाया। कृष्णमन्दिर की सजावट होने लगी लेकिन तीसरे ही दिन जवाब आया, मेरे यहाँ जन्माष्टमी न होगी, कोई तैयारी न की जाय। यह शौक का साल है, मैं किसी प्रकार का आनन्दोत्सव नहीं कर सकती, चाहे वह धार्मिक ही क्यों न हो। ज्ञानशंकर के हृदय पर विजली सी गिर गयी। समझ गये कि यहाँ से विदा होने के दिन निकट आ गये। नैराश्य का रंग और भी गहरा हो गया। शंका ने ऐसा उग्र रूप धारण किया कि डाकिये की सूरत देखते ही उनकी छाती घड़-धड़ करने लगती थी। किसी बग्घी या मोटर की आवाज सुन कर सिर में चक्कर आ जाता था, कही गायत्री न हो। रात और दिन में बनारस से चार गाडियो आती थी। यह ज्ञानशंकर के लिए कठिन परीक्षा की धड़ियां थी। गाड़ियों के आने के समय उनकी नींद आप ही आप खुल जाती थीं। चार दिन तक उनकी यह हालत रही। पांचवे दिन की डाक से गायत्री की रजिस्टरी चिट्ठी आयी। शिरनामा देखते ही ज्ञानशंकर के पाँव तले से जमीन सरक गयी। निश्चय हो गया कि यह मुझे हटाने का