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प्रेमाश्रम

पर्यन्त रोना है। विद्या देवी थी, उसने अपमान से भर जाना अच्छा समझा। मैं पिशाचिनी हैं, मौत से डरती हैं। लेकिन अब से यह जीवन त्याग और पश्चात्ताप पर समर्पण होगा। मैं अपनी रियासत से इस्तीफा दे देती हूँ, मेरा उस पर कोई अधिकार नही है। तीन साल से उस पर मेरा कोई हक नहीं है। मैं इतने दिनो तक बिना अधिकार ही उसका उपभोग करती रहीं। रियासत मेरे पतिव्रत-पालन का उपहार थी। यह ऐश्वर्य और सम्पत्ति मुझे इसलिए मिली थी कि कुलमर्यादा की रक्षा करती हूँ, मेरी पतिभक्ति अचल रहे। वह मर्यादा कितने महत्त्व की वस्तु होगी जिसकी रक्षा के लिए मुझे करोड़ो की सम्पत्ति प्रदान की गयी। लेकिन मैंने उस मर्यादा को भंग कर दिया, उस अमूल्य रत्न को अपनी विलासिता की भेंट कर दिया। अब मेरा उस रियासत पर कोई हक नहीं है। उसे घर मै पाँव रखने का भी मुझे स्वत्व नहीं, वहाँ का एकएक दाना मेरे लिये त्याज्य है। मैं इतने दिनो मे हराम के माल पर ऐश करती रही हूँ।

यह कह कर गायत्री कुछ लिखने लगी, लेकिन श्रद्धा ने कागज उठा लिया और बोली—खूब सोच-समझ लो, इतना उतावलापन अच्छा नहीं।

गायत्री----खूब सोच लिया है। मैं इसी क्षण ये मँगनी के वस्त्र फेकूँगी और किसी ऐसे स्थान पर जा बैठूँगी, जहाँ कोई मेरी सूरत न देखे।

श्रद्धा-भला सोचो तो दुनिया क्या कहेगी? लोग भाँति-भाँति की मनमानी कल्पनाएँ करेंगे। मान लिया तुमने इस्तीफा ही दे दिया तो यह क्या मालूम है कि जिनके हाथों में रियासत जायेगी वे उसका सदुपयोग करेंगे। अब तो तुम्हारे लोक और परलोक की भलाई इसी में है कि शेष जीवन भगवत भजन में काटो, तीर्ययात्रा करो, साधु-सन्त। की सेवा करो। सम्भव है कि कोई ऐसे महात्मा मिल जाये, जिनके उपदेश से तुम्हारे चित्त को शान्ति हो। भगवान् ने तुम्हे घन दिया है। उससे अच्छे काम करो। अनाथो और विधवाओं को पालो, धर्मशालाएँ बनवाओं, भक्ति को छोड़ कर ज्ञान पर चलो। भक्ति का मार्ग सीधा है, लेकिन काँटों से भरा हुआ है। ज्ञान का मार्ग टेढ़ा है लेकिन साफ है।

श्रद्धा का ज्ञानोपदेश अभी समाप्त न होने पाया था कि एक महरी ने आकर कहा बहू जी, वह डिपटियाइन आयी हैं, जो पहले यहीं रहती थी। यहीं लिया लाऊँ?

श्रद्धा- शीलमणि तो नही है?

महरी–हाँ-हाँ, वही है साँवली! पहले तो गहने से लदी रहती थी, आज तो एक मुंदरी भी नही है। बड़े आदमियों का मन गहने से भी फिर जाता है।

श्रद्धा--हाँ, यही लिया लाओ।

एक क्षण में शीलमणि आ कर खड़ी हो गयी। केवल एक उजली साडी पहने हुए थी। गहनों का तो कहना ही क्या, अघरों पर पान की लाली भी न थी। श्रद्धा उठ कर उनसे गले मिली और पूछा--सीतापुर से कब आयी।

शीलमणि आज ही आयी हैं, और इसी लिए आयी हूँ कि लाला ज्ञानशंकर से दो-दो बाते करूँ। जब से बेचारी विद्या के विष खा कर जान देने का हाल सुना है