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प्रेमाश्रम

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श्रद्धा और गायत्री मे दिन-दिन मेल-जोल बढ़ने लगा। गायत्री को अब ज्ञात हुआ कि श्रद्धा में कितना त्याग, विनय, दया और सतीत्व है। मेल-जोल से उनमे आत्मीयता का विकास हुआ, एक दूसरी से अपने हृदय की बात कहने लगी, आपस में कोई पर्दा न रहा। दोनो आधी-आधी रात तक बैठी अपनी बीती सुनाया करती। श्रद्धा की बीती प्रेम और वियोग की करुण कथा थी जिममें आदि से अन्त तक कुछ छिपाने की जरूरत न थी। वह रो-रो कर अपनी विरह-व्यथा का वर्णन करती, प्रेमशंकर की निर्दयता और सिद्धान्त प्रेम का रोना रोतीं, अपनी टेक पर भी पछतातीं। कभी प्रेमशंकर के सद्गुणो की अभिमान के साथ चर्चा करती। अपनी क्या कहने में, अपने हृदय के भावों को प्रकट करने में, उसे शान्तिमय आनन्द मिलता था। इसके विपरीत गायत्री की कथा प्रेम से शुरू हो कर आत्मग्लानि पर समाप्त होती थी। विश्वास के उद्गार में भी उसे सावधान रहना पड़ता था, वह कुछ न कुछ छिपाने और दबाने पर मजबूर हो जाती थी। उसके हृदय में कुछ ऐसे काले धब्बे थे जिन्हें दिखाने का उसे साहस न होता था, विशेषत श्रद्धा को जिसका मन और बचन एक था। वह उसके सामने प्रेम और भक्ति का जिक्र करते हुए शरमाती थी। वह जब ज्ञानशंकर के उस दुस्साहस को याद करती जो उन्होने रात को थियेटर से लौटते समय किया था तब उसे मालूम होता था कि उस समय तक मेरा मन शुद्ध और उज्ज्वल था, यद्यपि वासनाएँ अंकुरित हो चली थीं। उसके बाद जो कुछ हुआ वह सब ज्ञानशंकर की काम-तृष्णा और मेरी आत्म-दुर्वलता का नतीजा था जिसे मैं भक्ति कहती थी। ज्ञानशंकर ने केवल अपनी दुष्कामना पूरी करने के लिए मेरे सामने भक्ति का यह रंगीन जाल फैलाया। मेरे विषय में उनका यह लेख लिखना, धार्मिक और सामाजिक क्षेत्र में मुझे आगे बढ़ाना उनकी वह अविरल स्वामि-भक्ति, वह तत्परता, वह आत्म-समर्पण, सब उनकी अभीष्टसिद्धि के मन्त्र थे। मुझे मेरे अहंकार ने डुबाया, मैं अपने ख्याति-प्रेम के हाथो मारी गयी। मेरा वह धर्मानुराग, मेरी वह विवेकहीन मिथ्या भक्ति, मेरे वह आमोद-प्रमोद, मेरी वह आवैशमयी कृतज्ञता जिसपर मुझे अपने संयम और व्रत को बलिदान करने में लेशमात्र भी संकोच न होता था, केवल मेरे अहंकार की क्रीडाएँ थीं। इस व्याध ने मेरी प्रकृति के सबसे भेद्य स्थान पर निशाना मारा। उसने मेरे व्रत और नियम को धूल में मिला दिया, केवल अपने ऐश्वर्य-प्रेम के हेतु मेरा सर्वनाश कर दिया। स्त्री अपनी कुवृत्ति का दोष सदैव पुरुष के सिर पर रखती हैं, अपने को वह दलित और आहेत समझती है। गायत्री के हृदय में इस समय ज्ञानशंकर का प्रेमालाप, वह मृदुल व्यवहार, वह सतृष्ण चितवने तीर की तरह लग रही थी। वह कभी-कभी शोक और क्रोध हैं इतनी उत्तेजित हो जाती कि उसका जी चाहता कि उसने जैसे मेरे जीवन को भ्रप्ट किया है वैसे ही मैं भी उसका सर्वनाश कर दूँ।

एक दिन वह इन्हीं उद्दड विचारों में डूबी हुई थी कि श्रद्धा आकर बैठ गयी और