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प्रेमाश्रम

हो गयी थी, लेकिन ज्ञानशंकर की सुरस देखते ही उसका झिझकना, चीखना, चिल्लाना साफ कह रहा था कि उसने हमारे ही ऊपर जान दी। यह उसकी परम उदारता थी। कि उसने मुझे निर्दोष समझा। इतने भयंकर उत्तरदायित्व को भार उसकी आत्मा को कुचले देता था। शनैः शनै इस भाव का उस पर इतना प्राबल्य हुआ कि भक्ति और प्रेम से उसे अरुचि होने लगी। उसके विचार में यह दुर्घटना इस बात का प्रमाण थीं कि हम भक्ति के ऊँचे आदर्श से गिर गये, प्रेम के निर्मल जल में तैरते हुए हम भोग के सेवारो मे उलझ गये, मानों यह हमारी आत्मा को सजग करने के लिए देवप्रेरित चेतावनी थी। अब ज्ञानशंकर उसके पास आते तो उनसे खुल कर न मिलती। ज्ञानशंकर ने विद्या की दाह-क्रिया आप ने की थी, यहाँ तक कि चिता में आग भी न दी थी। एक ब्राह्मण से सब संस्कार कराये। गायत्री को यह असज्जनता और हृदय शून्यतः नागवार मालूम होती थी। उसकी इच्छा थी कि विद्या की अन्त्येष्टि प्रथानुसार और यथोचित सम्मान के साथ की जाय। उसकी आत्मा की शान्ति का अब यही एक उपाय था। उसने ज्ञानशंकर से इसका इशारा भी किया, पर वह टाल गये। अतएव वह उन्हें देखते ही मुंह फेर लेती थी, उन्हें अपनी वाणी का मंत्र मारने का अवसर ही न देती थी। उसे भय होता था कि उनकी यह उच्छृखलता मुझे और भी बदनाम कर देगी। वह कम से कम संसार की दृष्टि में इस हत्या के अपराध से मुक्त रहना चाहती थी।

गायत्री पर अब ज्ञानशंकर के चरित्र के जौहर भी खुलने लगे। उन्होंने उससे अपने कुटुम्बियो की इतनी बुराइयाँ की थी कि वह उन्हें धैर्य और सहनशीलता की मूर्त समझती थीं। पर यहाँ कुछ और ही बात दिखायी देती थी। उन्होंने प्रेमशंकर को शोक सूचना तक ने दी। लेकिन उन्होंने ज्यों ही खबर पायी तुरत दौड़े हुए आये और सोलह दिन तक नित्य प्रति आ कर यथायोग्य संस्कार में भाग लेते रहे! लाला प्रभाशंकर सस्कारों की व्यवस्था में, ब्रह्मभोज में, बिरादरी की दावत में व्यस्त थे मानो आपस मे कोई द्वेष नही। बड़ी बहू के ब्योहार से भी सच्ची समवेदना प्रकट होती थी। लेकिन ज्ञानशंकर के रंग-ढंग से साफ-साफ जाहिर होता था कि इन लोगो का शरीक होना उन्हें नागवार हैं। वह उनसे दूर-दूर रहते थे, उनसे बात करते तो रुखाई है, मानी सभी उनके शत्रु है और इसी बहाने उनका अहित करना चाहते हैं। ब्रह्मभोज के दिन उनकी लाला प्रभाशंकर से खासी झपट हो गयीं। प्रभाशंकर आग्रह कर रहे थे, मिठाइयाँ घर में बनवायी जायें। ज्ञानशंकर कहते थे कि यह अनुपयुक्त है। सम्भव है, घर की मिठाइयाँ अच्छीं बनें, पर खर्च बहुत पड़ेगा। बाजार से मामूली मिठाइयाँ मैंगवायी जायें। प्रभाशंकर ने कहा, खिलाते हो तो ऐसे पदार्थ खिलाओ कि खानेवाले भी समझें कि कही दावत खायी थी। ज्ञानशंकर ने बिगड़ कर कहा- मैं ऐसा अहमक नही हूँ कि इस वाह-वाह के लिए अपना घर लुटा दूँ। नतीजा यह हुआ कि बाजार से सस्ते मैल की मिठाइयाँ आयी। ब्राह्मणो ने डट कर खाया, लेकिन सारे शहर में निन्दा की।

गायत्री को जो बात सबसे अप्रिय लगती थी वह अपनी नजरबन्दी थी। जानशंकर