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प्रेमाश्रम

शोक नही होता। रात के निन्छ घृणित दृश्य ने विद्या के दिल से इस अपने-पन को, इस ममत्व को मिटा दिया था। अब उसे दुख था तो अपने अभाग्य का, शोक था तो अपनी अवलम्ब-हीनता का। उसकी दशा उस पतंग सी थी, जिसकी डोर टूट गयी हो, अथवा उस वृक्ष सी जिसकी जड़ कट गयी हो।

विद्या सारी रात इसी उद्विग्न दगी में पड़ी रही। कभी सोचती लखनऊ चली जाऊ और वहाँ जीवनक्षेप करू, कभी सोचती जीकर करना ही क्या है, ऐसे जीने से मरना क्या बुरा है? सारी रात आँखो में कट गयी। दिन निकल आया, लेकिन उसका उठने का जी न चाहता था। इतने में श्रद्धा आ कर खड़ी हो गयी और उसके श्रीहीन मुख की ओर देख कर बोली—क्या आज सारी रात जागती रही? आँखे लाल हो रही हैं।

विद्या ने आँखे नीची करके कहा- हाँ, आज नींद नहीं आयी।

श्रद्धा---गायत्री देवी से कुछ बातचीत नहीं हुई। मुझे तो ढंग ही निराले दीखते है। तुम तो इनकी बड़ी प्रशसा किया करती थी।

विद्या-क्यों, कोई नयी बात देखी क्या?

श्रद्धा-नित्य ही देखती हूँ। लेकिन रात जो दृश्य देखा और जो बाते सुनी वह कहते लज्जा आती है। कोई ग्यारह बजे होगे। मुझे अपने कमरे में पड़े-पड़े नीचे किसी के बोल-चाल की आहट मिली। डरी कि कहीं चोर न आयें हो। धीरे से उठ कर नीचे गयी। दीवानखाने में लैम्प जल रहा था! मैंने शीशे के अन्दर झाँका तो मन में कट कर रह गयी। अब तुमसे क्या कहूँ, मैं गायत्री को इतनी चंचल न समझती थी। कहाँ तो कृष्ण की उपासना करती है, कहाँ छिछोरापन। मैं तो उन्हें देखते ही मन में खटक गयी थी, पर यह न जानती थी कि इतने गहरे पानी में हैं।

विद्या-मैने भी तो कुछ ऐसा तमाशा देखा था। तुम मेरे आने के बहुत देर पीछे गयी थी। मुझे लखनऊ में ही सारी कथा मालूम हो गयी थी। इसी भयंकर परिणाम को रोकने के लिए मैं वहाँ से दौड़ी आयी, किन्तु यहाँ का रंग देख कर हताश हो गयी। ये लोग अब मेंझधार में पहुँच चुके है, उन्हें बचाना दुस्तर है। लेकिन मैं फिर कहूँगी कि इसमें गायत्री बहिन का दोष नहीं, सारी करतूत इन्ही महाशय की है जो जटा बढाये, पीताम्बर पहने भगत जी बने फिरते है। गायत्री बेचारी सीधी-सादी, सरल स्वभाव की स्त्री है। धर्म की ओर उसकी विशेष रुचि है, इसीलिए यह महाशय भी भगत बन बैठे और यह भेष धारण करके उसपर अपना मत्र चलाया। ऐसा पापात्मा संसार में न होगा। बहिन, तुमसे दिल की बात कहती हूँ, मुझे इनकी सूरत से घृणा हो गयी। मुझपर ऐसा आघात हुआ है कि मेरा बचना मुश्किल है। इस घोर पाप का दंड अवश्य मिलेगा। ईश्वर न करे मुझे इन आँखों से कुल का सर्वनाश देखना पड़े। वह सोने की घड़ी होगी जब संसार से मेरा नाता टूटेगा।

श्रद्धा--किसी की बुराई करना तो अच्छा नहीं है और इसी लिए मैं अब तक सब कुछ देखती हुई भी अन्धी बनी रही, लेकिन अब बिना बोले नहीं रहा जाता। मेरा वश चले तो ऐसी कुटिलाओं का सिर कटवा लें। यह भोलापन नहीं है, बेहयाई