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प्रेमाश्रम

किसी कारण से वह गायत्री को न जँचते थे। सोचते-सोचते सहसा वह चौंक पड़ी और मायाशंकर का नाम उसकी जवान पर आते-आते रह गया। ज्ञानशंकर ने अब तक अपनी मनोनाछा को ऐसा गुप्त रखा था और अपने आत्म-सम्मान की ऐसी धाक जमा रखी थी कि पहले तो मायाशंकर की और गायत्री का ध्यान ही न गया और जब गया तो उसे अपना विचार प्रकट करते हुए भय होता था कि कही ज्ञानशंकर के मर्यादाशील हृदय को चोट न लगे। हालाँकि ज्ञानशंकर का इशारा साफ था, पर गायत्री पर इस समय वह नशा था जो शराब और पानी मे भेद नही कर सकता। उसने कई बार हिम्मत की कि यह जिक्र छेड़े, किन्तु ज्ञानशंकर के चेहरे से ऐसा निष्काम भाव झलक रहा था कि उसकी जवान न खुल सकी। मायाशंकर की विचारशीलता, सच्चरित्रता, बुद्धिमत्ता आदि अनेक गुण उसे याद आने लगे। उससे अच्छे उत्तराधिकारी की वह कल्पना भी न कर सकती थी। ज्ञानशंकर उसको असमजस मे देख कर बोले-आया कोई लड़का ध्यान में?

गायत्री सकुचाती हुई बोली—जी हाँ, आया तो, पर मालूम नहीं आप भी उसे पसंद करेगे या नहीं? मैं इससे अच्छा चुनाव नहीं कर सकती।

ज्ञानशंकर सुनें कौन है?

गायत्री-वचन दीजिए कि आप उसे स्वीकार करेंगे।

ज्ञानशंकर के हृदय में गुदगुदी होने लगी। बोले--बिना जाने-बूझे मैं यह वचन कैसे दे सकता हूँ?

गायत्री मैं जानती हैं कि आपको उसमें आपत्ति होगी और विद्या तो किसी प्रकार राजी ही न होगी, लेकिन इस बालक के सिवा मेरी नजर और किसी पर पड़ती ही नही।

ज्ञानशंकर अपने मनोल्लास को छिपाये हुए बोले-सुनें तो किसका भाग्य-सूर्य उदय हुआ है।

गायत्री--बता दें? बुरा तो न मानिएगी न?

ज्ञान-जरा भी नहीं, कहिए।

गायत्री मायाशंकर।

ज्ञानशंकर इस तरह चौक पड़े मानो कानो के पास कोई बन्दूक छूट गयी हो। विस्मित नेत्रों से देखा और इस भाव से बोले मानों उसने दिल्लगी की है-मायाशंकर।

गायत्री- हाँ, आप वचन दे चुके हैं, मानना पड़ेगा।

ज्ञानशंकर-मैंने कहा था कि नाम सुन कर राय दूंगा। अब नाम सुन लिया और विवशता से कहता हूँ मैं आप से सहमत नहीं हो सकता।

गायत्री-मैं यह बात पहले से ही जानती थी, पर मुझमे और आप में जो सम्बन्ध है उसे देखते हुए आपको आपत्ति न होनी चाहिए।

ज्ञानशंकर मुझे स्वयं कोई आपत्ति नहीं है। मैं अपना सर्वस्व आप पर समर्पण कर चुका हूँ, लड़का भी आप की भेंट है, लेकिन आपको मेरी कुल-मर्यादा का हाल मालूम है। काशी में इतना सम्मानित और कोई घराना नही है। सब तरह से पतन