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प्रेमाश्रम

और तुम्हारा क्या सम्बन्ध है? क्या तुम इस पवित्र सम्बन्ध को इतना जीर्ण समझ रही हो कि उसे वायु और प्रकाश से भी बचाया जाये? वह एक अध्यात्मिक सम्बन्ध है, अटल और अंचल है। कोई पार्थिव शक्ति उसे तोड़ नहीं सकती। कितने शोक की बात है। कि हमारे आत्मिक ऐक्य से भली-भाँति परिचित हो कुर भी तुम मेरी इतनी अवहेलना कर रही हो। क्या मैं यह समझ लें कि तुम इतने दिनों तक केवल गुड़ियों का खेल खेल रही थी? अगर वास्तव में यही बात है तो तुमने मुझे कही को न रखा। मैं अपना तन और मन, घर्म और कर्म सब प्रेम की भेंट कर चुका हूँ। मेरा विचार था कि तुमने भी सोच समझ कर प्रेम पथ पर पग रखा है और उसकी कठिनाइयों को जानती हो। प्रेम को मार्ग कठिन है, दुर्गम और अपार। यहाँ बदनामी है, कलंक हैं। यहाँ लोकनिन्दा और अपमान है, लाछन है—व्यंग है। यहाँ वही धाम पर पहुँचता है जो दुनियाँ से मुंह मोड़े, संसार से नाता तोड़े। इस मार्ग में सासारिक सम्बन्ध पैरो की बेटी है, उसे तोड़े बिना एक पग भी रखना असम्भव है। यदि तुमने परिणाम का विचार नहीं किया और केवल मनोविनोद के लिए चल खड़ी हुई तो तुमने मेरे साथ घोर अन्याय किया। इसका अपराध तुम्हारी गरदन पर होगा।

यद्यपि ज्ञानशंकर मनोभावो को गुप्त रखने में सिद्धहस्त थे, पर इस समय उनका खिसियाया हुआ चेहरा उनकी इस सारगर्भित प्रेमव्याख्या का पर्दा खोल देता था। मुलम्मे की अंगूठी ताव खा चुकी थी।

इससे पहले ज्ञानशंकर के मुंह से ये बातें सुन कर कदाचितु गायत्री रोने लगती और ज्ञानशंकर के पैरो पर गिर क्षमा माँगतीं, नहीं, बल्कि ज्ञानशंकर की अभक्ति पर ये शब्द स्वयं उसके मुंह से निकलते। लेकिन वह नशा हिरन हो चुका था। उसने ज्ञानशंकर के मुँह की तरफ उड़ती हुई निगाह से देखा। वहाँ भक्ति का रोग न था। नट के लम्बे केश और भडकीले वस्त्र उतर चुके थे। वह मुखश्री जिसपर दर्शकगण लट्ट, हो जाते थे और जिसका रंगमंच पर करतल ध्वनि से स्वागत किया जाता था क्षीण हो गयी थी। जिस प्रकार कोई सीधा-सादा देहाती एक बार ताशवालो के दल में आ कर फिर उसके पास खेड़ा भी नहीं होता कि कही उनके बहकावे में न आ जाये, उसी प्रकार गायत्री भी यहाँ से दूर भागना चाहती थी। उसने ज्ञानशंकर को कुछ उत्तर न दिया और विद्या का हाथ पकड़े हुए द्वार की ओर चली। ज्ञानशंकर को ज्ञात हो गया कि मेरा मंत्र न चला। उन्हे क्रोध आया, मगर गायत्री पर नहीं, अपनी विफलता और दुर्भाग्य पर। शोक! मेरी सात वर्षों की अविश्रान्त तपस्याएँ निष्फल हुई जाती हैं। जीवन की आशाएँ सामने आ कर ली जाती हैं क्या करूँ? उन्हें क्योंकर मनाऊँ? मैंने अपनी आत्मा पर कितना अत्याचार किया, कैसे-कैसे षड्यन्त्र रचे? इसी एक अभिलाषा पर अपना दीन-ईमान न्यौछावर कर दिया। वह सब कुछ किया जो न करना चाहिए था। नाचना सीखा, नकल की, स्वाँग भरे, पर सारे प्रयत्न निष्फल हो गये। राय साहब ने सच कहा था कि सम्पत्ति तेरे भाग्य में नहीं है। मेरा मनोरथ कभी पूरी न होगा। यह अभलाषा चिंता पर मेरे साथ जलेगी। गायत्री की निष्ठुरता भी कुछ कम हृदय-विदा