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प्रेमाश्रम

पड़े थे, आँखो से भक्ति का आनन्द टपक रहा था और मुखारबिन्द प्रेम की दिव्यज्योति से आलोकित था।

उन्होंने गायत्री को अनुराग दृष्टि से देख कर कहा--आपके पदो में गजब का जादू है। हृदय में प्रेम की तरणें उठने लगती है, चित्त भक्ति से उन्मत्त हो जाता है।

गायत्री ने मुस्कुरा कर कहा, यह जादू मेरे पद में नहीं है, आपके कोमल हृदय में है। बाहर का काफी नीरस ध्वनि भी अन्दर जा कर सुरीली और रसमयी हो जाती हैं। साधारण दीपक भी मोटे शीशे के अन्दर बिजली का लैम्प बन जाता है।

ज्ञानशंकर--मेरे चित्त की आजकल एक विचित्र दशा हो गयी है। मुझे अब विश्वास हो गया है कि मनुष्य में एक ही साथ दो भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियों का समावेश नहीं हो सकता, एक आत्मा दो रूप नही धारण कर सकती।

गायत्री ने उनकी ओर जिज्ञासा भाव से देखा और वीणा को मेज पर रख कर उनको मुँह देखने लगी।

ज्ञानशंकर ने कहा- हम जो रूप धारण करते हैं उसका हमारी बातचीत और आचार व्यवहार पर इतना असर पड़ता है कि हमारी बास्तविक स्थिति लुप्त सी हो जाती हैं। अब मुझे अनुभव हो रहा है कि लोग क्यों तहको को नाटक में स्त्रियों का रूप धरने, नाचने और भाव बताने पर आपत्ति करते है। एक दयालु प्रकृति का मनुष्य सेना में रह कर कितना उद्दड और कठोर हो जाता है। परिस्थितियाँ उसकी दयालुता का नाश कर देती है। मेरे कानों मे अब नित्य घशी की मधुर-ध्वनि गुंजा करती है और आँखों के सामने गोकुल और बरसाने की छटा फिरा करती है। मेरी सत्ता कृष्ण में विलीन होती जाती हैं, राधा अब एक क्षण के लिए भी मेरे ध्यान से नहीं उतरती। कुछ समझ में नहीं आता कि मेरा मन मुझे किधर लिये जाता है।

यह कहते-कहते ज्ञानशंकर की आँखो से ज्योति सी निकलने लगी, मुखमहल पर अनुराग छा गया और वाणी माधुर्यं रस में डूब गयी। बोले- गायत्री देवी, चाहे यह छोटा मुँह और वही बात हो, पर सच्ची बात यह है कि इस आत्मोत्सर्ग की दशा में तुम्हारा उच्च पद, तुम्हारा धन-वैभव, तुम्हारा नाता सब मेरी आँखो से लुप्त हो जाता है और तुम मुझे वही राधा, वही वृन्दावन की अलबेली, तिरछी चितवनवाली, मीठी मुस्कानवाली, मृदुल भावोवाली, चंचल-चपल राघा भालूम होती हो। मैं इन भावनाओ को हृदय से मिटा देना चाहती हैं लाखो यत्न करता हैं, पर वह मेरी नही मानता। मैं चाहता हूँ कि तुम्हे रानी गायत्री समझें जिसका मैं एक तुच्छ सेवक हैं, पर बार-बार भूल जाता हूँ। तुम्हारी एक आवाज, तुम्हारी एक झलक, तुम्हारे पैरों की आहट, यहाँ तक कि केवल तुम्हारी याद मुझे इस वाह्य जगत् से उठा कर किसी दूसरे जगत में पहुँचा देती है। मैं अपने को बिलकुल भूल जाता हैं। अव तक इस चित्तवृत्ति को तुमसे गुप्त रखा था, लेकिन जैसे मिजराब की चोट से सितार ध्वनित हो जाता है उसी भाँति प्रेम की चोट से हृदय स्वरयुक्त हो जाता है। मैंने आपसे अपने चित्त की दशा कह