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प्रेमाश्रम

कराह कर बोले जी तो नहीं चाहता कि मुझपर जो कुछ बीती है वह मेरे और ज्ञानशंकर के सिवा किसी दूसरे व्यक्ति के कानो तक पहुँचे, किन्तु तुमसे पर्दा रखना अनुचित ही नही अक्षम्य है। तुम्हे सुनकर दुख होगा, लेकिन सम्भव है इस समय का शोक और खेद तुम्हे आनेवाली मुसीबतो से बचाये, जिनका सामान प्रारब्ध के हाथो हो रहा है। शायद तुम अपनी चतुराई से उन विपत्तियों का निवारण कर सको।

विद्या के चित्त मे भाँति-भाँति की शंकाएँ आन्दोलित होने लगी। वह एक पक्षी की भाँति डालियों-डालियों में उडनें लगी। मायाशंकर का ध्यान आया, कही वह बीमार तो नहीं हो गया। ज्ञानशंकर तो किसी चला मे नही हँस गये। उसने सशकर और सजल लोचनों से राय साहब की तरफ देखा।

राय साहब बोले, मैं आज तक ज्ञानशंकर को एक धर्मपरायण, सच्चरित्र और सत्य-निष्ठ युवक समझता था। मैं उनकी योग्यता पर गर्व करता था और अपने मित्रों से उनकी प्रशंसा करते कभी न थकता था। पर अबकी मुझे ज्ञात हुआ कि देवता के स्वरूप में भी पिशाच का वास हो सकता है।

विद्या की तेवरियों पर अब बल पड गये। उसने कठोर दृष्टि से राय साहब को देखा, पर मुँह से कुछ न बोली। ऐसा जान पड़ता था कि वह इन बातो को नही सुनना चाहती।

राय साहब ने उठ कर बिजली का बटन दबाया और प्रकाश में विद्या की अनिच्छा स्पष्ट दिखायी दी, पर उन्होंने इसका कुछ परवाह न करके कहा- यह मेरा बहत्तर साल है। हजारो आदमियो से मेरा व्यवहार रहा, किन्तु मेरे चरित्रज्ञान ने मुझे कभी धोखा नही दिया। इतना बड़ा घोखा खाने का मुझे जीवन में यह पहला ही अवसर है। मैंने ऐसा स्वार्थी आदमी कभी नहीं देखा।

विद्या अधीर हो गयी, पर मुंह से कुछ न बोली। उसकी समझ में ही न आता था कि राय साहब यह क्या भूमिका बाँध रहे हैं, क्यों ऐसे अपशब्दों का प्रयोग कर रहे है?

राय साहब---मेरा इम मनुष्य के चरित्र पर अटल विश्वास था। मेरी ही प्रेरणा से गायत्री ने इसे अपनी रियासत को मैनेजर बनाया। मैं जरा भी सचेत होता तो गायत्री पर उसकी छाया भी न पडने देना। ज्ञान और व्यवहार में इतना घोर विरोध हो सकता है इसका मुझे अनुमान भी न था। जिसकी कलम मे इतनी प्रतिभा हो, जिसके मुख में स्वच्छ, निर्मल भावों की धारा बहती हो, उसका अन्तःकरण ऐसा कलुपित, इतना मलीन होगा यह मैं बिलकुल न जानता था। विद्या से न रहा गया। यद्यपि वह ज्ञानशंकर की स्वार्थ-भक्ति से भली-भाँति परिचित थी, जिसका प्रमाण उसे कई बार मिल चुका था, पर उसका आत्म-सम्मान उनको अपमान सह न सकता था। उनकी निन्दा का एक शब्द भी वह अपने कानों से न सुनना चाहती थी। उनकी धर्मनीति में यह धौर पातक था। तीव्र स्वर से बोली-आप मेरे सामने उनकी बुराई