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प्रेमाश्रम


विद्या--भला वह अपने मन में क्या कहेंगे? क्या इससे तुम्हारा द्वेष न प्रकट होगा?

ज्ञानशंकर तुम मुझे जितना मूर्ख समझती हो, उतना नहीं हूँ। मुझे मालूम है। कौन बात किस ढंग से करनी चाहिए।

विद्या चिन्तित नेत्रों से भूमि की ओर देखने लगी। उसे पति की सकीर्णता पर खेद हो रहा था, लेकिन कुछ और कहते डरती थी कि कहीं उनकी दुष्कामना और भी दृढ़ न हो जाय। इतने मे दयाशंकर की स्त्री भोजन करने के लिए बुलाने आयी। उधर श्रद्धा ने आ कर बड़ी बहू को मनाना शुरू किया। विद्या ने लाला प्रभाशंकर को मनाने के लिए तेजशंकर को भेजा, पर इनमे कोई भी भोजन करने न उठा। प्रभाशंकर को यह ग्लानि हो रही थी कि मेरी स्त्री ने ज्ञानशंकर को अप्रिय बातें सुनायी। बड़ी बहू की शौक था कि मेरे पुत्र का कोई हितैषी नहीं। और ज्ञानशंकर को यह जलन थी कि यह लोग मेरा खा कर मुझी को आँखें दिखाते हैं। क्षुधाग्नि के साथ क्रोधाग्नि भी भड़कती जाती थी।

विवाद में हम बहुधा अत्यत नीतिपरायण बन जाते है, पर विस्तव में इससे हमारा अभिप्राय यही होता है, कि विपक्षी की जबान बंद कर दें। इन पद घटो मै ही ज्ञानशंकर की नीतिपरायणता ईर्षाग्नि में परिवर्तित हो चुकी थी। जिस प्राणी के हित के लिए ज्वालासिंह से कुछ कहना उन्हें असंगत जान पड़ता था, उसी के अहित के लिए वह वहाँ जाने को तैयार हो गये। उन्होंने इस प्रसंग की सारी बाते मन में निश्चित कर ली थी, इस प्रश्न को ऐसी कुशलता से उठाना चाहते थे कि नीयत का परदा में खुलने पाये।

दूसरे दिन प्रात काल ज्यों ही नौ बजे, ज्ञानशंकर ने पैरगाड़ी सँभाली और घर से निकले। द्वार पर लाला प्रभाशंकर अपने दोनों पुत्री के साथ टहल रहे थे। ज्ञानशंकर ने मन में कहा, बुड्ढा साठ बरस का हो गया है, पर अभी तक वही जवानी की ऐठ है। कैसा अकड़ कर चलता है। अब देखता हूँ, मिश्री और मक्खन कहाँ मिलता है? लौंडे मेरी ओर कैसे घूर रहे हैं, मानो निगल जायेंगे। वर्षा का आगमन हो चुका था, घटा उमड़ी हुई थी मानो समुन्द्र आकाश पर चढ़ गया हो। सड़को पर इतना कीचड़ था कि ज्ञानशंकर की पैर गाड़ी मुश्किल से निकल सकी, छीटो से कपड़े खराब हो गयें। उन्हें म्युनिसिपैलिटी के सदस्यों पर क्रोध आ रहा था कि यह सब के सब स्वार्थी खुशामदी और उचक्के हैं। चुनाव के समय भिखारियों की तरह हार द्वार चूमते-फिरते हैं, लेकिन मेम्बर होते ही राजा बन बैठते हैं। उस कठिन तपस्या का फल यह निर्वाण पद प्राप्त हो जाता है। यह बड़ी भूल है कि मेम्बरों को एक निर्दिष्ट काल के लिए रखा जाता है। वोटरों को अधिकार होना चाहिए कि जब किसी सदस्य को जी चुराते देखें तो उसे पदच्युत कर दें। यह मिथ्या है कि उस दशा में कोई कर्तव्यपरायण मनुष्य मेम्बरी के लिए खड़ा न होगा। जिन्हें राष्ट्रीय उन्नति की धुन है, वह प्रत्येक अवस्था में जाति-सेवा के लिए तैयार रहे। मेरे विचार में जो लोग सच्चे अनुराग से काम करना चाहते हैं वह इस बंधन से और भी खुश होंगे। इससे उन्हें अपनी अक-