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प्रेमाश्रम

में घोर पाप किये है। यदि वह आपसे बयान कहें तो आप चाहे कितने ही उदार क्यों न हो, मुझे तुरन्त नजरों से गिरा देंगे। मैं स्वय अपने कुकृत्यो का परदा बना हुआ हैं, इन्हें बाह्य आडम्बरों से ढके हुए हैं, लेकिन इस मुकदमे के सम्बन्ध में जनता ने मुझे जितना बदनाम कर रखा है उसका मैं भागी नहीं हूँ। मैं आपसे सत्य कहता हूँ। कि मुझपर जो आक्षेप किये गये हैं वे सर्वथा निर्मूल हैं। सम्मव है हत्या-निरूपण मे मुझे भ्रम हुआ हो और अवश्य हुआ है, लेकिन मैं इतना निर्दय और विवेकहीन नहीं हैं कि अपने स्वार्थ के लिए इतने निरपराधियों का गला काटता। यह मेरी दासवृत्ति है जिसने मेरे माथे पर अपयश का टीका लगा दिया।

प्रेमशंकर ने ग्लानिमय भाव से कहा--भाई साहब, आपकी इस बदनामी का सारा दोष मेरे सिर है। मैं ही आपका अपराध हैं। मैंने ही दूसरो के कहने मे आ कर आप पर अनुचित सन्देह किये। इसका मुझे जितना दुख और खेद है वह आप से कह नही सकता। आप जैसे साधु पुरुष पर ऐसा घोर अन्याय करने के लिए परमात्मा मुझे न जाने क्या दई देगे? पर आपसे मेरी यह प्रार्थना है कि मेरी अल्पशता पर विचार कर मुझे क्षमा कीजिए।

प्रियनाथ के हृदय पर से एक बोझ सा उतर गया। प्रमशंकर इसके दो-चार दिन बाद हाजीपुर लौट आये, पर डाक्टर साहब रोज सन्ध्या समय उनसे मिलने आयी करते। अब वह पहले से कहीं ज्यादा कर्तव्य-परायण हो गये थे। दस बजे के पहले प्रातःकाल चिकित्सा भवन मे आ बैठते, रोगियों की दशा ध्यान से देखते, उन्हें सान्त्वना देते। इतना ही नहीं, पहले वह पूरी फीस लिये बिना जगह से हिलते न थे, अब बहुधा गरीबों को देखनै विना फीस लिये ही चले जाते। छोटे-छोटे कर्मचारियों से आधी ही फीस लेते। नगर की सफाई का नियमानुसार निरीक्षण करते। जिस गली यी सड़क से निकल जाते, लोग बड़े आदर से उन्हें सलाम करते। चन्द महीनों में सारे नगर में उनको बखान होने लगा। काशी का प्रसिद्ध समाचार-पत्र गौरव' उनका पुराना शत्रु था। पहले उन पर खूब चोटे किया करता था। अब वह भी उनका भक्त हो गया। उसने अपने एक लेख मै यह आलोचना की काशी के लिए यह परम सौभाग्य की बात है कि बहुत दिनों के बाद उसे ऐसा प्रजावत्सल, ऐसा सहृदय, ऐसा कर्तव्यपरायण डाक्टर मिला। चिकित्सा का लक्ष्य धनोपार्जन नही, यशोपार्जन होना चाहिए और महाशय प्रियनाथ ने अपने व्यवहार से सिद्ध कर दिया है कि वह इस उच्चादर्श का पालन करना अपना ध्येय समझते हैं।' डाक्टर साह्य को सुकीत का स्वाद मिल गया। अब दीनो की सेवा में उनका चित्त जितना उल्लसित होता था उतना पहले सचित घन की बढ़ती हुई संख्याओं से भी न हुआ था। यद्यपि घन की तृष्णा से वह अभी मुक्त नही हुए थे, पर कीति-लाभ की सदिच्छा ने धन-लिप्सा परास्त कर दिया था। प्रेमशंकर के सम्मुख जाते ही उनका हृदय ओस बिन्दुओ से धुले हुए फूलो के सदृश निर्मल हो जाता, निखर उठता। उस सरल सन्तोषमय, कामनारहित जीवन के सामने उन्हें अपनी धन-लालसा तुच्छ मालूम होने लगती थीं। सन्तान की चिन्ता का बोझ कुछ