पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/२७२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७७
प्रेमाश्रम

गत भावो को, तुम्हारे उद्गारो को सन्मार्ग पर ले जाने की चेष्टा नही की गयी। तुमने धर्म और भक्ति का प्रकाश कभी नहीं देखा, जो मन पर छाये हुए तिमिर को नष्ट करने का एक ही साधन है। तुम जो कुछ हो, अपनी शिक्षा प्रणाली के बनायें हुए हो। पूर्व के संस्कारो ने जो अंकुर जमाया था, उसे शिक्षा ने सघन वृक्ष बना दिया। तुम्हारा कोई दोष नही, काल और देश का दोष हैं। मैं क्षमा करता हूँ और ईश्वर से विनती करता हूँ कि वह तुम्हें सद्बुद्धि दे।

राय साहब के ओठ नीले पड गये, मुख कान्तिहीन हो गया, आँखे पथराने लगी। माथे पर स्वेद बिन्दु चमकने लगे, पसीने से सारा शरीर तर हो गया, साँस बडे वेग से चलने लगी। ज्ञानशंकर उनकी यह दशा देख कर विकल हो गये, काँपते हुए हाथों से पखा झलने लगे, लेकिन राय साहब ने इशारा किया कि यहाँ से चले जाओ, मुझे अकेला रहने दो और तुरन्त भीतर से द्वार बन्द कर दिया। ज्ञाशंकर मूर्तीवत् द्वार पर खड़े थे, मानो किसी ने उनके पैरों को गाड़ दिया हो। इस समय उन्हें अपने कुकृत्य पर इतना अनुताप हो रहा था कि जी चाहता था उसी थाल का एक कौर खा कर इस जीवन का अन्त कर लें। पहले राय साहब की अभिमानपूर्ण बातें सुन कर उन्हें आशा हो गयी थी कि विष का इनपर कुछ असर न होगा। लेकिन अब इस आशा की जगह भय हो रहा था कि उन्होंने अपनी योग-शक्ति का भ्रमात्मक अनुमान किया था? क्या करूँ। किसी डाक्टर को बुलाऊँ? उस घन-लिप्सा को सत्यानाश हो जिसने मेरे मन में यह विषम प्रेरणा उत्पन्न की, जिसने मुझसे यह हत्या करायी। हा कुटिल स्वार्थ तूने मुझे नर-पिशाच बना दिया। मैं क्यों इनका शत्रु हो रहा हूँ? इसी जायदाद के लिए, इसी रियासत के लिए, इसी सम्पत्ति के लिए! क्या वह सम्पत्ति मेरे हाथों में आ कर दूसरो को मेरा शत्रु न बना देगी? कौन कह सकता है कि मेरा भी यही अन्त में होगी।

ज्ञानशंकर ने द्वार पर कान लगा कर सुना। ऐसा जान पडा कि राय साहब हाथपैर पटक रहे है। मारे भय के ज्ञानशंकर को रोमांच हो गया। उन्हें अपनी अधम नीचता, अपनी धोरतम पैशाचिक प्रवृत्तियों पर ऐसा शोकमय पश्चात्ताप कभी न हुआ। था। उन्हें इस समय परिणाम की चिन्ता न थी, न यह शंका थी, कि मेरा क्या हाल होगा। बस, यही धड़का लगा हुआ था कि रायसाहब कीं न जाने क्या गति हो रही है। कोई जबरदस्ती भी करता तो वह वहाँ से न हटते। मालूम नहीं, एक क्षण में क्या हो जाय।

इतने में महाराज थाली में कुछ और पदार्थ लाया। उसे देखते ही ज्ञानशंकर का रक्त सूख गया। समझ गये कि अब प्राण न बचेंगे। यह दुष्ट अभी यहां का हाल देख कर शोर मचा देगा। खोज-पूछ होने लगेगी, गिरफ्तार हो जाऊँगा। वह इस समय उन्हें काल स्वरूप देख पड़ता था। उन्होने उसे समीप न आने दिया, दूर से ही कहा, हम लोग भोजन कर चुके, अब कुछ न लाओ।

महाराज ने बन्द किवाड़ो को कुतूहल से देखा और आगे बढ़ने की चेष्टा की कि