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प्रेमाश्रम

समीप जाइए तो उनकी गगन-स्पर्शी चोटियों को देख कर चित्त कैसा भयभीत हो जाता है! ज्ञानशंकर ने मरने को जितना सहज समझा था उससे कही कठिन ज्ञात हुआ। उन्हें विचार हुआ, मैं कैसा मन्द बुद्धि हैं कि एक जरा सी बात के लिए प्राण देने पर तत्पर हो रहा हैं। माना, मैं राय साहब की नजरों में गिर गया, माना गायत्री भी मुझे मुंह न लगायेगी और विद्या भी मुझसे घृणा करने लगेगी, तब भी क्या मैं जीवनकाल मे कुछ काम नहीं कर सकता? अपना जीवन सफल नहीं बना सकता? संसार का कर्म क्षेत्र इतना तंग नहीं है। मैं इस समय आज से छह सात वर्ष पूर्व की अपेक्षा कहीं अच्छी दशा में हूँ। मेरे २० हजार रुपये बैंक में जमा है, २०० रु० मासिक की आमदनी गाँव से है, बँगला है, मोटर है, मकान किराये पर उठा दें तो ५०-६० रु० माहवार और मिलने लगे। अगर किसी की चाकरी न करूं तो भी एक भले आदमी की भाँति जीवन व्यतीत कर सकता हूँ। राय साहब यदि मेरी कलई खोल दे तो क्या मैं उनकी खबर नहीं ले सकता? उन्हें अपने कलम के जोर से इतना बिगाड़ सकता हैं कि वह किसी। को मुंह दिखाने योग्य न रहेगे। गायत्री भी मेरे पजे में हैं, मेरी तरफ से जरा भी निगाह मोटी करे तो आन की आन में उसे इस उच्चासन से गिर सकता हूँ। उसे मैंने ही इतना नेकनीम बनाया है और बदनाम भी कर सकता हूँ। मेरी बुद्धि न जाने कहाँ चली गयी थी। कूटनीति की रंगभूमि क्या इतनी संकीर्ण है? अब तक मुझे जो कुछ सफलता हुई है इसी की बदौलत हुई है, तो अब मैं उसका दामन क्यों छोड़े? उससे निराश क्यों हो जाऊँ? अगर इस टूटी हुई नौका पर बैठ कर मैंने आधी नदी पार कर ली है तो अब उसपर से जल में क्यों कुद पड़ूँ।

ज्ञानशंकर स्नान करके जल से निकल आये। उनका चेहरा विजय-ज्योति से चमक रहा था।

लेकिन जिस प्रकार विजयी सैना शत्रुदल को मैदान से हटा कर और भी उत्साहित हो जाती है और शत्रु को इतना निर्बल और अपंग बना देती है कि फिर उसके मैदान मे आने की सम्भावना ही न रहे, उसी प्रकार ज्ञानशंकर के हौसले भी बढे। सोचा, इसकी नौबत ही क्यो आने दें कि मुझपर चारो ओर से आक्षेप होने लगें और मैं अपनी सफाई देता फिरूँ? मैं मर कर नेकनाम बनना चाहता था, क्यों न मार कर वही उद्देश्य पूरा करूं? इस समय यही पुरुषोचित कर्तव्य है। मरने से मारना कही सुगम है। भाग्य-विधाता। तुम्हारी लीला कितनी विचित्र है। तुमने मुझको मृत्यु के मुख से निकाल लिया। बाल-बाल बचा! मैं अब भी अपने मनसूबो को पूरा कर सकता हूँ। विभव, यश, सुकीर्ति सब कुछ मेरे अधीन है, केवल थोड़ी सी हिम्मत चाहिए। ईश्वर का कोई भय नहीं, वह सर्वज्ञ है। पर्दा तो केवल मनुष्यों की आँखों पर डालना है, और मैं इस काम में सिद्धहस्त हूँ।

ज्ञानशंकर एक किराये के ताँगे पर बैठ कर घर आयें। रास्ते भर वह इन्ही विचारों में लीन रहे। उनकी ऋद्धि-प्राप्ति के मार्ग में रायसाहव ही बाधक हो रहे थे। इस बाधा को हटाना आवश्यक था। पहले ज्ञानशंकर ने निराश हो कर मार्ग से लौट जाने

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