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प्रेमाश्रम


मिर्जा–आज तो अगर हलाल भी कर डालो तो लाश के सिवा और कुछ न पाओगे।

वफाती निराश हो कर चला गया। मिर्जा साहब ने अबकी जा कर जीने का द्वार भीतर से बन्द कर दिया और फिर हारमोनियम सँभाला कि अकस्मात् डाकिये ने पुकारा। मिर्जा साहब चिट्ठियों के लिए बहुत उत्सुक रहा करते थे। जा कर द्वार खोला और समाचार-पत्रों तथा चिट्ठियों का एक पुलिन्दा लिये प्रसन्न मुख ऊपर आये। पहला पत्र उनके पुत्र का था, जो प्रयाग में कानून पढ़ रहे थे। उन्होंने एक सूट और कानूनी पुस्तकों के लिए रुपये माँगे थे। मिर्जा ने झुंझला कर पत्र को पटक दिया। जब देखो, रुपयों का तकाजा, गोया यहाँ रुपये फलते हैं। दूसरा पत्र एक अनाथ बालक का था। मिर्जा जी ने उसे सन्दूक में रखा। तीसरा पुत्र एक सेवा-समिति का था। उसने 'इत्तहादी' अनाथालय के लिए २० रु० महीने की सहायता देने का निश्चय किया था। इस पत्र को पढ़ कर वे उछल पड़े और उसे कई बार आँखों से लगाया। इसके बाद समाचार पत्रों की बारी आयी। लेकिन मिर्जा जी की निगाह लेखों या समाचारों पर न थी। वह केवल 'इत्तहाद' अनाथालय की प्रशंसा के इच्छुक थे। पर इस विषय में उन्हें बड़ी निराशा हुई। किसी पत्र में भी इसकी चर्चा न देख पड़ी। सहसा उनकी निगाह एक ऐसी खबर पर पड़ी कि वह खुशी के मारे फड़क उठे! गोरखपुर में सनातन धर्मसभा का अधिवेशन होनेवाला था। ज्ञानशंकर प्रबन्धक मन्त्री थे। विद्वज्जनों से प्रार्थना की गयी थी कि वह उत्सव में सम्मिलित हो कर उसकी शोभा बढ़ायें। मिर्जा साहब यात्रा की तैयारियाँ करने लगे।



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महाशय ज्ञानशंकर को धर्मानुराग इतना बढ़ा कि सांसारिक बातों से उन्हें अरुचिसी होने लगी, दुनिया से जी उचाट हो गया। वह अब भी रियासत का प्रबन्ध उतने ही परिश्रम और उत्साह से करते थे, लेकिन अब सख्ती की जगह नरमी से काम लेते थे। निर्दिष्ट लगान के अतिरिक्त प्रत्येक असामी से ठाकुरद्वारे और धर्मशाले का चन्दा भी लिया जाता था; पर इस रकम को वह इतनी नम्रता से वसूल करते थे कि किसी को शिकायत न होती थी। अब वह एतराज, इजाफा और बकाये के मुकदमे बहुते कम दायर करते। असामियों को बैंक से नाम-मात्र व्याज ले कर रुपये देने और डेवढ़े सवाई की जगह केवल अष्टांश वसूल करते। इन कामों से जितना अवकाश मिलता उसका अधिकांश ठाकुरद्वारे और धर्मशाले की निगरानी में व्यय करते। दूर-दूर से कुशल कारीगर बुलाये गये थे जो पच्चीकारी, गुलकारी, चित्रांकण, कटाव और जड़ावे की कलाओं में निपुण थे। जयपुर से संगमर्मर की गाड़ियाँ भरी चली आती थीं। चुनार, ग्वालियर आदि स्थानों से तरह तरह के पत्थर मॅगाये जाते थे। ज्ञानशंकर की परम इच्छा थी कि यह दोनों इमारतें अद्वितीय हों और गायत्री तो यहाँ तक तैयार थी