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प्रेमाश्रम

पडा है जो बात-बात पर अदालत का रास्ता लेते हैं। मेरे ही मौजे को देखिए, कैसा तूफान उठ गया और महज चरावर को रोक देने के पीछे ।

इतने में डाक्टर इर्फान अली बार-एट्ला की मोटर आ पहुँची। ज्ञानशकर ने उनका स्वागत किया।

डाक्टर--अबकी आप ने बडा इन्तजार कराया । मैं तो आपसे मिलने के लिए गोरखपुर आनेवाला था ।

ज्ञानशकर--रियासत का काम इतना फैला हुआ है कि कितना ही समेटें नही सिमटता ।

डाक्टर--आपको मालूम तो होगा यहाँ युनिवर्सिटी मे इकनोमिक्स की जगह खाली है । अब तो आप सिंडिकेट में भी आ गये है।

ज्ञानशकर--जी हाँ, सिंडिकेट में तो लोगों ने जबरदस्ती धर घसीटा, लेकिन यहाँ रियासत के कामो से फुर्सत कहाँ कि इघर तवज्जह करूँ ? कुछ कागजात गये थे, लेकिन मुझे उनके देखने का मौका ही न मिला ।

डाक्टर–-डाक्टर दास के चले जाने से यह जगह खाली हो गयी है और मै इसका उम्मीदवार हूँ ।

ज्ञानशकर ने आश्चर्य से कहा, आप !

डाक्टर--जी हाँ, अब मैंने यह फैसला किया है। मेरी तबीयत रोज-व-रोज चकालत से बेजोर होती जाती है।

ज्ञानशकर--आखिर क्यो ? आपकी वकालत तो तीन-चार हजार से कम की नहीं। हुक्काम की खुशामद तो नही खलती? या कासेन्स (आत्मा) का खयाल है?

डाक्टर--जी नही, सिर्फ इसलिए कि इस पेशे में इन्सान की तबीयत बेजा जरपरस्ती की तरफ मायल हो जाती हैं। कोई वकील कितना ही हकशिनास क्यो न हो, उसे हमदर्दी और इन्सानियत से वह खुशी नही होती जो एक शरीफ आदमी को होनी चाहिए। इसके खिलाफ आपस की लड़ाइयो और दगाबाजियों से एक खास दिलचस्पी हो जाती है जो लतीफ जजबात से खाली है। मैं महीनो से इसी कशमकश में पड़ा हुआ हूँ और अब यही इरादा है कि जितनी जल्द मुमकिन हो इस पेशे को सलाम करूँ ।

यही बातें हो रही थी कि फैजू और कर्तारसिंह ने सामने आ कर सलाम किया। ज्ञानशकर ने पूछा, कहो खैरियत तो है ।

फैजू--हुजूर, खैरियत क्या कहे ! रात को किसी ने खाँ साहब को मार डाला ।

ईजाद हुसेन और इर्फान अली चौक पड़े, लेकिन ज्ञानशकर लेश-मात्र भी विचलित न हुए, मानो उन्हें यह बात पहले ही मालूम थी। बोले, तुम लोग कहाँ थे ? कही सैर-सपाटे करने चल दिये थे या अफीम की पिनक में पड़े हुए थे।

फैजू--हुजूर, थे तो चौपाल में ही, पर किसी को क्या खबर कि यह वारदात होगी ?

ज्ञान–-क्यो, खबर क्यो न थी ? जो आदमी साँप को पैरो से कुचल रहा हो उसे