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प्रेमाश्रम

प्रेमशकर को उनसे स्नेह-सा हो गया । वहाँ से उठे तो ६ बज चुके थे। चौपाल की तरफ जाते हुए दुखरने भगत के द्वार पर पहुँचे तो एक विचित्र दृश्य देखा। गाँव के कितने ही आदमी जमा थे। और भगत उनके बीच में खड़े हाथ में शालिग्राम की मूर्ति लिए उन्मत्तों की भाँति वहक-वहक कर कह रहे थे--यह शालिग्राम हैं। अपने भक्तो पर बडी दया रखते हैं? सदा उनकी रक्षा किया करते हैं। इन्हें मोहन भोग बहुत अच्छा लगता है! कपूर और धूप की महक बहुत अच्छी लगती हैं। पूछो, मैंने इनकी कौन सेवा नहीं की। आप सत्तू खाता था, बच्चे चवेना चबाते थे, इन्हें मोहनभोग का भोग लगता था। इनके लिए जा कर कोसो से फूल और तुलसीदल लाता थी। अपने लिए तमाखू चाहे न रहे, पर इनके लिए कपूर और धूप की फिकिर करता था। इनका भोग लगा के तब दूसरा काम करता था। घर में कोई मरता ही क्यो न हो, पर इनकी पूजा-अर्चा किये बिना कभी न उठता था । कोई दिन ऐसा न हुआ कि ठाकुरद्वारे में जाकर चरणामृत न पिया हो, आरती न ली हो, रामायण का पाठ न किया हो। यह भगती और सर्वा क्या इसलिए कि मुझ पर जूते पड़ें, हकनाहक मारा जाऊँ, चमार बनूँ । धिक्कार मुझ पर जो फिर ऐसे ठाकुर का नाम लूँ, जो इन्हें अपने घर में रखूँ, और फिर इनकी पूजा करूँ । हाँ, मुझे धिक्कार है! ज्ञानियों ने सच कहा है कि यह अपने भगतो के वैरी हैं, उनका अपमान कराते है, उनकी जड़ खोदते है, और उससे प्रसन्न रहते है जो इनका अपमान करे। मैं अब तक भूला हुआ था। बोलो मनोहर, क्या कहते हो, इन्हे कुएँ में फेकूँ या घूर पर डाल दूँ, जहाँ इन पर रोज मनो कूडा पडा करे या राह में फेंक दूँ जहाँ सवेरे से साँझ तक इन पर लाते पड़ती रहे ?

मनोहर--मैया, तुम जान कर अनजान बनते हो। वह संसार के मालिक हैं, उनकी महिमा अपरम्पार है।

कादिर--कौन जानता है, उनकी क्या मरजी है ? बुराई से भलाई करते हैं। इतना मन न छोटा करो।

दुखरन--(हँस कर) यह सब मन को समझाने का ढकोसला है। कादिर मियाँ, यह पत्थर का ढेला है, निरा मिट्टी का पिंडा। मैं अब तक भूल में पड़ा हुआ था। समझता था, इसकी उपासना करने से मेरे लोक-परलोक दोनो बन जायँगे। आज आँखो के सामने से वह परदा हट गया। यह निरा मिट्टी का ढेला है। यह लो महाराज, जाओ जहाँ तुम्हारा जी चाहे। तुम्हारी यहीं पूजा है। उन्तालीस साल की भगती का तुमने मुझे जो बदला दिया है, मैं भी तुम्हें उसी को बदला देता हूँ।

यह कह कर भगत ने शालिग्राम की प्रतिमा को जोर से एक ओर फेंक दिया। न जाने कहाँ जा कर गिरी। फिर दौंडे हुए घर में गये और पूजा की पिटारी लिए हुए बाहर निकले। मनोहर लपका कि पिटारी उनके हाथ से छीन लूँ। लेकिन भगत ने उसे अपनी ओर आने देख कर बडी फुर्ती से पिटारी खोली और उसे हवा में उछाल दी। सभी सामग्रियाँ इधर-उधर फैल गयी। तीस वर्ष की धर्म निष्ठा और आत्मिक श्रद्धा