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प्रेमाश्रम

पूछा, घर पर तो सब कुशल है न?

ज्ञानशकर--लखनपुर से आया है, वहाँ फौजदारी हो गयी है। इस गाँव ने मेरी नाक में दम कर दिया। सब ऐसे दुष्ट है कि किसी तरह काबू में नहीं आते। यह सब भाई साहब की करतूत है।

गायत्री--तव तो आपको जाना पडेगा। कहीं मामला तूल न पकड़ गया हो।

ज्ञान--अबकी हमेशा के लिए निवटारा कर दूँगा। या तो गाँव से इस्तीफा दे दूँगा या सारे गाँव को ही जला दूँगा। वे लोग भी क्या याद करेंगे कि किसी से पाला पडी था।

गायत्री--लौटते हुए माया को जरूर लाइएगा, उसे देखने को बहुत जी चाहता है। विद्या को भी घसीट लायें तो क्या कहना! मैं तो लिखते-लिखते हैरान हो गयी।

ज्ञान--यह वही प्रथा की गुलामी है, जिसका आप बखान करती हैं। वहिन के घर जाने का साधारणत. रिवाज नही है, वह इसे क्योकर तोड़ सकती है! कदाचित् इसी कारण आप भी बहाँ नहीं जा सकती।

गायत्री--(लजा कर) मैं इन बातो की परवाह नहीं करती, लेकिन यहाँ तो आप देखते है सिर उठाने की फुरसत नही।

ज्ञान--यही बहाना वह भी कर सकती है।

गायत्री--खैर, वह न आये न सही, लेकिन माया को जरूर लाइएगा और वहाँ का समाचार लिखते रहिएगा । अवकाश मिलते ही चले आइएगा।

गायत्री को अन्तिम वाक्य ऐसा आकाक्षा-सूचक था कि ज्ञानशकर के हृदय में गुदगुदी सी पैदा हो गयीं। उन्हें यहाँ रहते तीन साल से ऊपर हो गये थे, कितनी ही बार बनारस आये, लेकिन गायत्री ने कभी लौटने के लिए ऐसा भावपूर्ण आग्रह न किया था। दिल ने कहा, शायद मेरा जादू कुछ असर करने लगा। बोले, तब भी तो दो सप्ताह से कम क्या लगेगे ?

गायत्री चिन्तित स्वर से बोली--दो सप्ताह?

ज्ञानशकर को अपने विचार की पुष्टि हो गयी। ६ बजे वह डाकगाडी से रवाना हुए और ५ बजते-बजते बनारस पहुँच गये।



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जिस समय ज्ञानशकर की अपील खारिज हुई, लखनपुर के लोगों पर विपत्ति की घटा छायी हुई थी। कितने ही घर प्लेग से उजड गये। कई घरों में आग लग गयी। कई चोरियाँ हुईं। उन पर दैविक घटना अलग हुई। कभी आँधी आती, कभी पानी वरसता। फाल्गुन के महीने में एक दिन ओले पड गये। सारी खेती नष्ट हो गयी। अब गाँववालो के लिए कोई सहारा न था। बिसेंसर साह ने भी जमीदार के मुकाबले में सहायता देने से इन्कार किया। स्त्रियो के गहने पहले ही निकल चुके थे। अब सुक्खू चौधरी के सिवा और कोई न था जो अपील की पैरवी कर सकता था। लोग भाग्य पर