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प्रेमाश्रम


ज्वाला-मैं नतीजे को सोच कर कातर हो जाता हूँ। बाबू ज्ञानशंकर का फँस जाना निश्चित है। मुमकिन हैं, जेल की नौबत आये। वह आत्मिक कष्ट मेरे लिए इससे कही असह्य होगा। जिसमें बरसों तक भ्रातृवत् प्रेम रहा, जिसमें दाँत काट रोटी थी उससे मैं इतना कठोर नहीं हो सकता। मैं तो इस विचार-मात्र ही से काँप उठता हूँ। इन आक्षेपों से मेरी केवल इतनी हानि होगी कि यहाँ से तबदील हो जाऊँगा या अधिक से अधिक पदच्युत हो जाऊँगा, परन्तु ज्ञानशंकर तबाह हो जायेगें। मैं अपने दुरावेशों को पूरा करने के लिए उनके परिवार का सर्वनाश नहीं कर सकता।

प्रेमशंकर ने ज्वालासिंह को श्रद्धापूर्ण नेत्रों से देखा। इस आत्मोत्सर्ग के मामने उनका सिर झुक गया, हृदय सदनुराग से परिपूर्ण हो गया। ज्वालासिंह के पैरों पर गिर पड़े और सजल नेत्र हो कर बोले, भाई जी, आपको परमात्मा ने देवस्वरुप बनाया है। मुझे अब तक न मालूम था कि आपके हृदय में ऐसे पवित्र और निर्मल भाव छिपे हुए हैं।

ज्वालासिंह झिझक कर पीछे हट गये और बोले, भैया, भैया, ईश्वर के लिए यह अन्याय न कीजिए। मैं तो अपने को इस योग्य भी नहीं पाता कि आपके चरणारबिद अपने माथे से लगाऊँ। आप मुझे काँटों में घसीट रहे हैं।

प्रेमशंकर---यदि आप की इच्छा हो तो मैं उन्हीं पत्रों में इन आक्षेप का प्रतिवाद कर दूँ।

ज्वालासिंह वास्तव में प्रतिवाद की आवश्यकता को स्वीकार करते थे, किन्तु इस भय है कि कहीं मेरी सम्मति मुझे उस उच्च पद से गिरा न दे, जो मैंने अभी प्राप्त किया हैं, इन्कार करना ही उचित जान पड़ा। बोले, जी नहीं, इसकी भी जरुरत नहीं।

प्रेमशंकर के चले जाने के बाद ज्वालासिंह को खेद हुआ कि प्रतिवाद का ऐसा उत्तम अवसर हाथ से निकल गया। अगर इनके नाम से प्रतिवाद निकलता तो यह सारा मिथ्या-जाल मकड़ी के जाल के सदृश कट जाता। पर अब तो जो हुआ सो हुआ। एक साधु पुरुष के हृदय में स्थान तो मिल गया।

प्रेमशंकर घर तक जाने का विचार करके हाजीपुर से चले थे। महीनों से घर का कुशल-समाचार न मिला था, लेकिन यहाँ से उठ तो नौ बज गये थे, जेठ की लू चलने लगी थी। घर से हाजीपुर लौट जाना दुस्तर था। इसलिए किसी दूसरे दिन का इरादा करके लौट पड़े।

लेकिन ज्ञानशंकर को चैन कहाँ। उन्हें ज्यों ही मालूम हुआ कि भैया देहात से लौट आये है, वह उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो गये। ज्वालासिंह को उनकी नजरों में गिराना आवश्यक था। सन्ध्या समय था। प्रेमशंकर अपने झोपड़े के सामनेवाले गमलों में पानी दे रहे थे कि ज्ञानशंकर आ पहुँचे और बोले, क्या मजूर कहीं चला गया है क्या?

प्रेमशंकर–मैं भी तो मजूर ही हूँ। घर पर सब कुशल है न?

ज्ञान—जी हाँ, सब आपकी दया है। आपके यहाँ तो कई मजूर हलवाहे होंगे।