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प्रेमाश्रम

लेखराज बोले, एक-एक पैसा दाँत से पकड़ती है। न जाने बटोर कर क्या करेगी? कोई आगे-पीछे भी तो नहीं है।

अँधेरा हो चला था। गायत्री सोच रही थी, इन लुटेरो से क्योंकर बचें? इनका बस चले तो दिन-दहाड़े लूट लें। इतने नौकर हैं, लेकिन ऐसा कोई नहीं, जिसे इलाके की उन्नति का ध्यान हो। ऐसा सुयोग्य आदमी कहीं मिलेगा? मैं अकेली ही कहाँ कहाँ दौड़ सकती हैं। ठीके पर दे दें तो इससे अधिक लाभ हो सकता है। सब झंझटो से मुक्त हो जाऊँगी, लेकिन असामी मर मिटेंगे। ठीकेदार इन्हें पीस डालेगा। कृष्णार्पण कर दें, तो भी वही हाल होगा। कही ज्ञानशंकर राजी हो जायँ तो इलाके के भाग जग उठें। कितने अनुभवशील पुरुष हैं, कितने मर्मज्ञ, कितने सूक्ष्मदर्शी। वह आ जाये तो इन लुटेरो से मेरा गला छूट जाय। सारा इलाके चमन हो जाय। लेकिन मुसीबत तो यह है कि उनकी बातें सुन कर मेरी भक्ति और धार्मिक विश्वास डावांडोल हो जाते हैं। अगर उनके साथ मुझे दो-चार महीने और लखनऊ रहने का अवसर मिलता तो मैं अब तक फैशनेबुल लेडी बन गयी होती। उनकी वाणी में। विचित्र प्रभाव है। मैं तो उनके सामने बावली सी हो जाती हैं। वह मेरा इतना अदब करते तो भी परछाईं की तरह उनके पीछे-पीछे लगी रहती थी, छेड़ छाड़ किया करती थी। न जाने उनके मन में मेरी ओर से क्या-क्या भावनाएँ उठी हो। पुरुष में यह बड़ा अवगुण है कि हास्य और विनोद को कुवृत्तियों से अलग नहीं रख सकते। इसका पवित्र आनन्द उठाना उन्हें आता ही नहीं। स्त्री जरा हँस कर बोली और उन्होंने समझ लिया कि वह मुझ पर लट्टू हो गयी। उन्हें जरा-सी उँगली पकड़ने को मिल जाय, फिर तो पहुँचा पकड़ते देर नहीं लगती। अगर ज्ञानशंकर यहाँ आने पर तैयार हो गये तो उन्हें यही रखूंगी। यही से वह इलाके का प्रबंध करेंगे। जब कोई विशेष काम होगा तो शहर जायेंगे। वहाँ भी मैं उनसे दूर-दूर रहूँगी। भूल कर भी घर में न बुलाऊँगी। नहीं, अब उन्हें उतनी धृष्टता करने का साहस ही न होगा। बेचारा कितना लज्जित था, मेरे सामने ताक न सकता था। स्टेशन पर मुझे बिदा करने आया था, मगर दूर बैठा रहा, जबान तक न खोली।

गायत्री इन्हीं विचारों मे मग्न थी कि एक चपरासी ने आज की डाक उसके सामने रख दी। डाक घर यहाँ से तीन कोस पर था। प्रति दिन एक बेगार डाक लेने जाया करता था।

गायत्री ने पूछा—वह आदमी कहाँ है? क्यों रे, अपनी मजूरी पा गया?

बेगारी- हाँ सरकार, पा गया।

गायत्री-कम तो नहीं है?

बेगार-नहीं सरकार, खुब खाने भर को मिल गया।

गायत्री---कल तुम जाओगे कि कोई दूसरा आदमी ठीक किया जाय?

बेगार-सरकार, मैं तो हाजिर ही हूँ, दूसरा क्यों जायगा?

गायत्री चिट्ठियाँ खोलने लगी। अधिकांश चिट्ठियाँ सुगन्धित तेल और अन्य औष