पृष्ठ:प्रेमाश्रम.pdf/१२२

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१२७
प्रेमाश्रम

थी और तर्क द्वारा उन्हें कायल करना कठिन था।

इनके सो जाने के बाद प्रेमशंकर ने सन्दूकची खोल कर देखा। गहने सभी सोने के थे। रुपये गिने तो पूरे एक हजार थे। इस समय प्रेमशंकर के सम्मुख श्रद्धा एक देवी के रूप मे खड़ी मालूम होती थी। उसकी मुखश्री एक विलक्षण ज्योति से प्रदीप्त थी। त्याग और अनुराग की विशाल मूति थी, जिसके कोमल नेत्रों में भक्ति और प्रेम की किरणें प्रस्फुटित हो रही थी। प्रेमशंकर का हृदय विह्वल हो गया। उन्हें अपनी निष्ठुरता पर बड़ी ग्लानि उत्पन्न हुई। श्रद्धा की भक्ति के सामने अपनी कटुता और अनुदारता अत्यन्त निन्दा प्रतीत होने लगी। उन्होंने सन्दूकची बन्द करके खाट के नीचे रख दी और लैटे तो सोचने लगे, इन गहनो को क्या करूं? कुल सम्पत्ति पाँच हजार से कम की नहीं हैं। इसे मैं ले लें तो श्रद्धा निरवलम्ब हो जायेगी। लेकिन मेरी दशा सदैव ऐसी ही थोड़े रहेगी। अभी ऋण समझ कर ले लें, फिर कभी सूद समेत चुका दूंगा। पचीस बीघे ऊसर हैं तो दो ढाई हजार में तय हो जाय। एक हजार खाद डालने और रेह निकालने में लग जायेंगे। एक हजार में बैलों की गोइयाँ और दूसरी सामग्रियाँ आ जायेंगी। दस बीधे में एक सुन्दर बाग लगा दें, पन्द्रह बीघे में खेती करूँ। दो साल तो चाहे उपज कम हो, लेकिन आगे चल कर दो-ढाई हजार वार्षिक की आय होने लगेंगी। अपने लिए मुझे २०० रु० साल भी बहुत है, शेष रुपये अपने जीवनोंद्देश्य के पूरे करने में लगेंगे। सम्भव है, तब तक कोई सहायक भी मिल जाय। लेकिन उस दशा में कोई सहायता भी न करे तो मेरा काम चलता रहेगा। हाँ, एक बात का ध्यान ही न रहा। मैं यह ऊसरे ले ले तो फिर इस गाँव में गोचर भूमि कहाँ रहेगी। यही ऊसर तो- यहाँ के पशुओं का मुख्य आधार हैं। नहीं, इसके लेने का विचार छोड़ देना चाहिए। अब तो हाथ में रुपये हो गये हैं, कही न कही जमीन मिल ही जायेगी। हैं, अच्छी जमीन होगी तो इतने रुपयों में दस बीधे से ज्यादा न मिल सकेगी। बस बीधे में मेरा काम कैसे चलेगा?

प्रेमशंकर इसी उधेड़-बुन में पड़े हुए थे। मूसलाधार मेह बरस रहा था। सहसा उनके कानों में बादल के गर्जने की सी आवाज आने लगी, मानो किसी बड़े पुल पर से रेलगाड़ी चली जा रही हो। लेकिन जब देर तक इस ध्वनि को सार न टूटा, और थोड़ी देर में गाँव की ओर से आदमियों के चिल्लाने और रोने की आवाजें आने लगी, तो वह घबड़ा कर उठे और गाँव की तरफ नजर दौड़ायी। गाँव मे हलचल मची हुई थी। लोग हाथों में, सन और अरहर के डठलो की मशालें लिए इधर-उधर दौड़ते। फिरते थे। कुछ लोग मशाले लिये नदी की तरफ दौड़ते जाते थे। एक क्षण में मशाल का प्रतिबिम्ब सा दीखने लगा, जैसे गाँव में पानी लहरे मार रहा हो। प्रेमशंकर समक्ष गये कि बाढ़ आ गयी।

अब विलम्ब करने का समय न था। वह तुरन्त गाँव की तरफ चले। थोड़ी ही दूर चल कर वह घुटनों तक पानी में पहुंचे। बहाव में इतना वेग था कि उनके पाँव मुश्किल से सँभल सकते थे। कई बार वह गड्ढो में गिरते-गिरते बचे। जल्दी में जल