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प्रेमाश्रम

मिलते हुए अनिष्ट की आशंका होती है। धर्म को तोड़ कर कौन प्राणी सुखी रह सकता है? आपके विचार तो ऐसे नहीं, फिर आप क्यों मेरी सुधि नहीं लेते?

यहाँ लोग आपके प्रायश्चित्त करने की चर्चा कर रहे हैं। मैं जानती हैं, आपको बिरादरी का भय नहीं है, पर यह भी जानती हूँ कि आप मुझपर दया और प्रेम रखते हैं। क्या मेरी खातिर इतना न कीजिएगा? मेरे धर्म को न निभाइएगा?

इस सन्दूकची में मेरे कुछ गहने और रुपये हैं। गहने अब किसके लिए पहनें। कौन देखेगा? यह तुच्छ भेंट है, इसे स्वीकार कीजिए। यदि आप न लेंगे, तो समझूगी कि आपने मुझसे नाता तोड़ दिया।

-आपकी अभागिनी, श्रद्धा।'

प्रेमशंकर के मन में पहले विचार हुआ कि सन्दूकची को वापस कर दें और लिख दें कि मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत नहीं। क्या मैं ऐसा निर्लज्ज हो गया कि जो स्त्री मेरे पास इतनी निष्ठुरता से पेश आये उसी के सामने मदद के लिए हाथ फैला? लेकिन एक ही क्षण में यह विचार पलट गया। उसके स्थान पर यह शंक हुई कि कहीं इसके मन ने कुछ और तो नहीं ठान ली है। यह पत्र किसी विषम संकल्प का सूचक तो नहीं है। वह अस्थिर चित्त हो कर इधर-उधर टहलने लगे। सहसा लाला प्रभाशंकर से बोले, आपको तो मालूम होगा ज्ञानशंकर का बर्ताव उसके साथ कैसा है?

प्रभा-बेटा, यह बात मुझसे मत पूछो। हाँ, इतना कहूंगा कि तुम्हारे यहाँ रहने से बहुत दुखी है। तुम्हें मालूम हैं कि उसको तुमसे कितना प्रेम है। तुम्हारे लिए उसने। बड़ी तपस्या की है। उसके ऊपर तुम्हारी अकृपा नितान्त अनुचित है।

प्रेम---मुझे वहाँ रहने में कोई उच्च नहीं है। हाँ, ज्ञानशंकर के कुटिल व्यवहार से दुःख होता है और फिर वहाँ बैठकर यह काम न होगा। किसानों के साथ रह कर मैं उनकी जितनी सेवा कर सकता हूँ, अलग रह कर नहीं कर सकता। आपसे केवल यह प्रार्थना करता हूँ कि आप उसे बुला कर उसकी तस्कीन कर दीजिएगा। मेरे विचार से उसका व्यवहार कितना ही अनुचित क्यों न हो, पर मैं उसे निरपराध समझता हूँ। यह दूसरों के बहकाने का फल है। मुझे शंक होती है कि वह जान पर न खेल जाय।

प्रभा–मगर तुम्हें बचन देना होगा कि सप्ताह में कम से कम एक बार वहाँ अवश्य जाया करोगे।

प्रेम-इसका पक्का वादा करता हूँ।

प्रभाशंकर ने लौटना चाहा, पर प्रेमशंकर ने उन्हें साग्रह रोक लिया। हाजीगंज मैं एक सज्जन ठाकुर भवानीसिंह रहते थे। उनके यहाँ भोजन का प्रबन्ध किया गया। पूरियाँ मोटी थी और भाजी भी अच्छी न बनी थी, किन्तु दूध बहुत स्वादिष्ट था। प्रभाशंकर ने मुस्करा कर कहा, यह पूरियाँ हैं या लिट्टी? मुझे तो दो-चार दिन भी खानी पड़े तो काम तमाम हो जाय। हाँ, दूध की मलाई अच्छी है।

प्रेम-मैं तो यहाँ रोटियाँ बना लेता हूँ। दोपहर को दूध पी लिया करता हूँ।

प्रभा-तो यह कहो तुम योगाभ्यास कर रहे हो। अपनी रुचि का भोजन न मिले तो फिर जीवन का सुख ही क्या रहा?