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बोलता है औं आगे अथाह जमुना बह रही है। अब क्या करूँ। ऐसे कह भगवान का ध्यान धुर जमुना में पैठे। जो जो आगे जाते थे तो तो नदी बढ़ती थी। जब नाक तक पानी आया तब तो ये निपट घबराए। इनको व्याकुल जान श्रीकृष्ण ने अपना पाँव बढ़ाय हुंकारा दिया। चरन छूते ही जमुना थाह हुई, बसुदेव पार हो नंद की पौर पर जा पहुँचे। वहाँ किवाड़ खुले पाये, भीतर धस के देखे तो सब सोए पड़े हैं। देवी ने ऐसी मोहनी डाली थी कि जसोदा को लड़की के होने की भी सुध न थी। वसुदेवजी ने कृष्ण को तो जसोदा के ढिग सुला दिया, और कन्या को ले चट अपना पंथ लिया। नदी उतर फिर आए तहाँ, बैठी सोचती थी देवकी जहाँ। कन्या दे वहाँ की कुशल कही, सुनते ही देवकी प्रसन्न हो बोली―हे स्वामी हमें कंस अब मार डाले तो भी कुछ चिता नहीं, क्योकि इस दुष्ट के हाथ से पुत्र तो बचा।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी राजा परीक्षित से कहने लगे कि जब बसुदेव लड़की को ले आए तब किवाड़ जो के तो भिड़ गये और दोनों ने हथकड़ियाँ बेड़ियाँ पहर लीं। कन्या रों उठी, रोने की धुन सुन पहरुए जागे तो अपने अपने शस्त्र ले ले सावधान हो लगे तुपक छोड़ने। तिनका शब्द सुन लगे हाथी चिंघाड़ने, सिह दहाड़ने और कुत्ते भोकने। तिसी समै अंधेरी रात के बीच बरसते में एक रखवाले ने आ हाथ जोड़ कंस से कहा―महाराज, तुम्हारा बैरी उपजा। यह सुन कंस मूर्छित हो गिरा।