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( ८ )

ही वहाँ का राजा हुआ, जिसकी एक ही रानी विसका नाम पवनरेखा सो अति सुंदरी औं पतिव्रता थी, आठो पहर स्वामी की आज्ञा ही में रहे। एक दिन कपड़ो से भई तो पति की आज्ञा से सखी सहेली को साथ कर रथ में चड़ बन में खेलने को गई। वहाँ घने घने वृक्षों में भाँति भाँति के फूल फूले हुए, सुगंध सनी मंद मंद ठंढी पवन बह रही, कोकिल, कपोत, कीर, मोर, मीठी मीठी मनभावन बोलियाँ बोल रहे और एक और पर्वत के नीचे जमुना न्यारीही लहरे ले रही थी, कि रानी इस समय के देख रथ से उतर कर चली तो अचानक एक ओर अकेली भूल के जा निकली। वहाँ द्रुमलिक नाम राक्षस भी संयोग से आ पहुँचा। वह इसके जोबन औ रूप की छब को देख छक रहा और मन में कहने लगा कि इससे भोग किया चाहिए। यह ठान तुरत राजा उप्रसेन का सरूप बन रानी के सोही जा बोला―तू मुझसे मिल। रानी बोली―महाराज, दिन को कामकेलि करनी जोग नहीं, क्योकि इसमें सील और धर्म जाता है। क्या तुम नहीं जानते जो ऐसी कुमति बिचारी है।

जद पवनरेखा ने इस भाँति कहा तद तो द्रुमलिक ने रानी को हाथ पकड़ कर खैच लिया और जो मन माना सो किया। इस छल से भोग करके जैसा था तैसा ही बन गया। तब तो रानी अति दुख पाय पछतायकर बोली―अरे अधर्मी, पापी, चंडाल, तूने यह क्यों अंधेर किया जो मेरा सत खो दिया, धिक्कार है तेरे माता पिता और गुरू को, जिसने तुझे ऐसी बुद्धि दी। तुमसा पूत जन्ने से तेरी माँ बाँझ क्यो न हुई। अरे दुष्ट, जो नर देह पाकर किसी का सत भंग करते है सो जन्म जन्म नरक में पड़ते