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है सो कलियुग है, इसीके आने से मैं भागा जाता हैं । यह गाय सरूप पिरथी है सो भी इसीके डर से भाग चली है। मेरा नाम है। धर्म, चार पॉव रखता हूँ-तप, सत, दया और सोच । सतयुग में मेरे चरन बीस विस्वे थे, त्रेता में सोलह, द्वापर में बाहर, अब कलियुग में चार विस्वे रहे, इसलिये कलि के बीच मैं चल नहीं सकता। धरती बोली-धर्माचतार, मुझसे भी इस युग में रहा नहीं जाता, क्योकि शुद्र राजा ही अधिक अधर्म मेरे पर करेंगे, तिनका बोझ में न सह सकेंगीं इस भय से मैं भी भागती हैं । यह सुनतेही राजा ने क्रोध कर कलियुग से कहामै तुझे अभी मारता हूँ । वह घबरा राजा के चरनी पै गिर गिड़गिड़ाकर कहने लगा-पृथ्वीनाथ, अब तो मैं तुम्हारी सरन था मुझे कहीं रहने को ठौर बताइये, क्योकि तीन काल और चारों युग जो ब्रह्मा ने बनाये है सो किसी भॉति मेटे न मिटेगे । इतना बचन सुनते ही राजा परीक्षित ने कलियुग से कहा कि तुम इतनी ठौर रहो-जुए, झूठ, मद की हाट, बेस्या के घर, हत्या, चोरी और सोने में । यह सुन कलि ने तो अपने स्थान को प्रस्थान किया और राजा ने धर्म को मन में रख लिया । पिरथी अपने रूप में मिल गई । राजा फिर नगर में आये और धर्मराज करने लगे ।

कितने एक दिन बीते राजा फिर एक समै आखेट को गये औ खेलते खेलते प्यासे भये, सिर के मुकुद में तो कलियुग रहता ही था, किसने अपना औसर पा राजा को अज्ञान किया । राजा प्यास के मारे कुहाँ आते हैं कि जहाँ लोमस ऋछि आसन मारे नैन बूंदे हरि को ध्यान लगाये तप कर रहे थे । जिन्हें देख परीक्षित मुलः मे कहने लगा कि यह अपने तप के घमंड से मुझे देख