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बालक सो जो चूक कछु परै। साध न कबहूँ मन में धरै॥

महाराज, जब पार्वतीजी ने शिवजी को समझाकर ठंढा किया तब भृगु महादेवजी को तमोगुन में लीन देखे चल खड़े हुए। पुनि बैकुंठ मे गए जहाँ भगवान मनिमय कंचन के छपरखट पर फूलो की सेज में लक्ष्मी के साथ सोते थे। जाते ही भृगु ने भगवान के हृदै में एक लात ऐसी मारी कि वे नीद सै चौक पड़े। मुनि को देख लक्ष्मी को छोड़ छपरखट से उतर हरि भृगुजी का पाँव सिर ऑखों से लगाय लगे दाबने औ यों कहने कि हे ऋषिराय! मेरा अपराध क्षमा कीजे, मेरे हृदय कठोर की चोट तुम्हारे कोमल कमलचरन में अनजाने लगी यह दोष चित में न लीजे। इतना बचन प्रभु के मुख से निकलते ही भृगु जी अति प्रसन्न हो स्तुति कर विदा हो वहाँ आए, जहॉ सरस्वती तीर सब ऋषि मुनि बैठे थे। आतेही भृगुजी ने तीनों देवताओं का भेद सब जो का तों कह सुनाया कि―

ब्रह्मा राजस में लपटान्यो। महादेव तामस में सान्यो॥
विष्णु जु सात्विक मांहि प्रधान। तिनते बड़ो देव नहीं आने॥
सुनत ऋषिन को संसो गयो। सबही के मन आनंद भयौ॥
विष्णु प्रसंसा सब ने करी। अविचल भक्ति हृदै में धरी॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कही कि महाराज, मै अंतरकथा कहता हूँ तुम मन लगाय सुनौ। द्वारका पुरी में राजा उग्रसेन तो धर्मराज करते थे औ श्रीकृष्णचंद बलराम उनकी आज्ञाकारी। राजा के राज से सत्र लोग अपने अपने स्वधर्म में सावधान, काज कर्म में सज्ञान रहते औ आनंद चैन करते थे। तहॉ एक ब्राह्मन भी अति सुशील धरमिष्ट रहता