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कारी बैकुंठनाथ श्री मुरारी करुनानिधान करुनाकर विप्र भेष धर विकासुर के सनमुख जाय बोले कि हे असुरराय, तुम उनके पीछे क्यौं श्रम करते हो, यह मुझे समझाकर कहो। बात के सुनते ही विकासुर ने सब भेद कह सुनाया। पुनि भगवान बोले कि हे असुरराय, तुम सा सयाना हो धोखा खाय यह बड़े अचरज की बात है। इस नंग मुनंगे बावले भाँग धतूरा खानेवाले जोगी की बात कौन सत्य माने यह सदा छार लगाए सर्प लिपटाए, भयानक भेष किए भूत प्रेतो को संग लिए स्मशान में रहता है। इसकी बात किसके जी मे सच आवे। महाराज, यह बात कह श्रीनारायन बोले कि हे असुरराय, जो तुम मेरा कहा झूठ मानौ तो अपने सिर पर हृथि रख देख लो।

महाराज, प्रभु के मुख से इतनी बात सुनते ही, माया के बस अज्ञान हो, विकासुर ने जो अपने सिर पर हाथ रक्खा तो जलकर भस्म का ढेर हुआ। असुर के मरते ही सुर पुर में आनंद के बाजन बाजने लगे और देवता जैजैकार कर फूल बरसाबने, विद्याधर गंधर्व किन्नर हरिगुन गाने। उसकाल हरि ने हर की अति स्तुति कर बिदा किया औं विकासुर को मोक्ष पदारथ दिया। श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इस प्रसंग को जो सुने सुनाचेगा, सो निस्संदेह हरि हर की कृपा से परमपद पावेगा।