पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४५६

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
सत्यासीवाँ अध्याय

इतनी कथा सुन राजा परीक्षित ने श्रीशुकदेवजी से पूछा कि महाराज, आप जो आगे कह आए कि वेद ने परम ईश्वर की स्तुति की सो निगुन ब्रह्म की स्तुति वेद ने क्यौंकर की यह मुझे समझा कर कहो, जो मेरे मन का संदेह जाय। श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, सुनिये कि जिसने बुद्धि, इंद्री, मन, प्रान धर्म अर्थ काम मोक्ष को बनाया है, सो प्रभु सदा निर्गुन रूप रहता है, पर जब ब्रह्माण्ड रचता है तब सगुनसरूप होता है, इससे निर्गुन सगुन वही एक ईश्वर है।

इतना कह पुनि शुकदेव मुनि बोले कि राजा, जो प्रश्न तुमने किया सोई प्रश्न एक समय नारदजीने नरनारायन से किया था। राजा परीक्षित ने कहा कि महाराज, यह प्रसंग मुझे समझाकर कहिये जो मेरे मन का संदेह जाय। सुकदेवजी बोले कि राजा, सतयुग में एक समैं नारदजी ने सतलोक में जाय, जहॉ नरनारायन अनेक मुनियो के संग बैठे तप करते थे पूछा कि महाराज, निराकार ब्रह्म की स्तुति वेद किस भॉति करते हैं सो कृपा कर कहिये। नरनारायन बोले कि सुन नारद, जो संदेह तूने मुझसे पूछा यही संदेह एक समै जनलोक में जहॉ सनातनादि ऋषि बैठे तप करते थे हुआ था, तद सनंदन मुनि ने कथा कह सब का सदेह मिटाया। नारदजी बोले―महाराज, मै भी तो वहीं रहता हूँ, जो यह प्रसंग चलता तो मै भी सुनता। नरनारायण ने कहा―


*(क) में सरगुन और (ख) म सगुण है।