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तार ले असुर हो। महाराज, इस बात के सुनतेही ऋषिपुत्र अति भय खाय प्रजापति के चरनो पर जाय गिरे औ बहुत गिड़गिड़ाय अति बिनती कर बोले कि कृपासिधु, आपने श्राप तो दिया पर अब कृपा कर कहिए कि इस श्राप से हम कब मोक्ष पावेगे। उनके दीन बचन सुन प्रजापति ने दयाल हो कहा कि तुम श्रीकृष्णचंद के दरसन पाय मुक्त होगे। महाराज―

इतनौ कहत प्रान तज गए। ते हरिनाकुस पुत्र जु भए॥
पुनि बसुदेव के जन्मे जाय। तिनकौ हत्यो कंस ने आय॥
मारत तिन्ह माया ले आई। इह ठॉ राखि गई सुखदाई॥

उनका दुख माता देवकी करती हैं, इसलिये हम ह्याँ आए है कि अपने भाइयों को ले जाय माता को दीजे औ उनके चित्त की चिता दूर कीजे। श्रीशुकदेवजी बोले कि गजा, इतना बचन हरि के मुख से निकलते ही राजा बलि ने छहो बालक ला दिये औ बहुत सी भेटे आगे धरीं। तब प्रभु वहॉ से भाइयों को साथ ले माता के पास आए। माता पुत्रो को देख अति प्रसन्न हुई। इस बात को सुन सारी पुरी में आनंद हुआ औ उनका श्राप छूटा।