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श्रीकृष्ण बलदेवजी प्रथम नंद जसोदाजी को यथायोग दंडवत प्रनाम कर पुनि ग्वाल बालो से जाय मिले। तहाँ गोपियों ने आय हरि का चंदमुख निरख अपने नयन चकोरों को सुख दिया औ जीवन का फल लिया। इतना कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, वसुदेव, देवकी, रोहिनी, श्रीकृष्ण, बलराम से मिल जो कुछ प्रेम नंद उपनद जसोदा गोपी ग्वाल बालो ने किया सो मुझसे कहा नहीं जाता, वह देखे ही बन आवै। निदान सब को स्नेह में निपट व्याकुल देख श्रीकृष्णचंदजी बोले कि सुनौ―

मेरी भक्ति जो प्रानी करै। भवसागर निर्भय सो तरै॥
तन मन धन तुम अर्पन कीन्हौ। नेह निरंतर कर मोहि चीन्हौ॥
तुम सम बड़भागी नहीं कोय। ब्रह्मा रुद्र इंद्र किन होय॥
जोगेश्वर के ध्यान न आयो। तुम संग रह नित प्रेम बढ़ायौ॥
हौ सब ही के घट घट रहो। अगम अगाध जुबानी कहौ॥

जैसे तेज जल अग्नि पृथ्वी आकाश का है देह में बास, तैसे सब घट में मेरा है प्रकाश श। श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जब श्रीकृष्णचंद ने यह सब भेद कह सुनाया, तब सब ब्रजवासियो को धीरज आया।