पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/४३५

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

पर ले जाय बैठाया। वह पथ का हारा थका तो था ही, सेज पर जाय सुख पाय सो गया। प्रभु ने उस समय विश्वकर्मा को बुलायके कहा― तुम अभी जाय सुदामा के मंदिर अति सुन्दर कंचन रत्न के बनाय, तिनमे अष्टसिद्धि नवनिद्धि धर आओ जो इसे किसी बात की कांक्षा न रहे। इतना बचत प्रभु के मुख से निकलते ही विश्वकर्मा वहॉ जाये बात की बात मे बनाये आया औ इरि से कह अपने स्थान को गया।

भोर होते ही सुदामी उठ स्नान ध्यान भजन पूजा से निचिंत हो प्रभु के पास विदा होने गया, उस समय श्रीकृष्णचंदजी मुख से तो कुछ न बोल सके, पर प्रेम मैं मगन हो ऑखे डबड वाय सिथिल हो देख रहे। सुदामा बिदा हो प्रनाम कर अपने घर को चला औ पंथ मे जाये मन ही मन विचार करने लगा कि भला भया जो मैने प्रभु से कुछ न मॉगा जो उनसे कुछ मॉगता तो वे देते तो सही पर मुझे लोभी लालच समझते। कुछ चिन्ता नहीं ब्राह्मनी को मै समझाय लूंंगा। श्रीकृष्णचंदजी ने मेरा अति मान सनमान किया औ मुझे निर्लोभी जाना यही मुझे लाख है। महाराज, ऐसे सोच विचार करता करता सुदामा अपने गॉव के निकट आया, तो क्या देखता है कि न वह ठॉव है न वह टूटी मड़ैया, वहॉ तो एक इंद्रपुरी सी बस रही है। देखते ही सुदामा अति दुखित हो कहने लगा कि हे नाथ, तूने यह क्या किया? एक दुख तो था ही दूसरा और दिया। ह्यॉ से मेरी झोपड़ी क्या हुई और ब्राह्मनी कहॉ गईं, किससे पूछूं हो किधर ढूंढूँ?

इतना कह द्वार पर जाय सुदामा ने द्वारपाल से पूछा कि यह मंदिर अति सुंदर किसके है? द्वारपाल ने कहा― श्रीकृष्णाचंद