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उन्नासीवाँ अध्याय

श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, बलरामजी की आज्ञा पाय सौनकादि सब ऋषि मुनि अति प्रसन्न हो जो यज्ञ करने लगे, तो जालव नाम दैत्य लब का बेटा आय, महा मेघ कर बादल गरजाय, बड़ी भयंकर अति काली ऑधी चलाय, लगा आकाश से रुधिर औ मल मूत्र बरसाचने और अनेक अनेक उपद्रव मचाने।

महाराज, दैत्य की यह अनीति देखि बलदेवजी ने हुल मूसल का आवाहन किया, वे आय उपस्थित हुए। पुनि महा क्रोध कर प्रभु ने जालव को हल से खैच एक मूसल उसके सिर मे ऐसा मारा कि

फुट्यौ मस्तक छूटे प्रान। रुधिर प्रवाह भयौ तिहिं स्थान॥
कर भुज डारि परौ बिकरार। निकरे लोचन राते बार॥

जालव के मरतेही सब मुनियों ने अति संतुष्ट हो बलदेवजी की पूजा की औ बहुत सी स्तुति कर भेट दी। फिर बलराम सुखधाम वहाँ से बिदा दो तीरथ यात्रा को निकले तो महाराज, सच तीरथ कर पृथ्वी प्रदक्षना करते करते कहॉ पहुँचे कि जहॉ कुरुक्षेत्र में दुर्योधन औ भीमसेन महायुद्ध करते थे औ पॉडव समेत श्रीकृष्णचंद औ बड़े बड़े राजा खड़े देखते थे। बलरामजी के जातेही बीरो ने प्रनाम किया, एक ने गुरु जान, दूसरे ने बंधु मान। महाराज दोनों को लड़ता देख बलदेवजी बोले―

सुभट समान प्रबल दोउ बीर। अत्र संग्राम तजहु तुम धीर॥
कौर पंडु की राखहु बंस। बंधु मित्र सव भए विध्वंस॥


(ख) मे इल्लव का पुत्र बल्कल है पर शुद्ध नाम बल्वल है।