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पहलै हलधर कौं बध करौ। पाछै प्रान कृष्ण के हरौ॥

जहॉ बलदेवजी स्त्रियो के साथ विहार करते थे, महाराज, छिपकर यह वहॉ क्या देखता है कि बलरामजी मद पी सब स्त्रियों को साथ ले एक सरोवर बीच अनेक अनेक भॉति की लीला कर कर, गाय गाय, न्हाय न्हलाय रहे है। यह चरित्र देख दुविद एक पेड़ पर जा चढ़ा औ किलकारियाँ मार मार, घुरक घुरक लगा डाल डाल कूद कूद, फिर फिर चरित्र करने औ जहॉ मदिरा का भरा कुलस औ सबके चीर धरे थे, तिनपर हगने मूतने लगा। बंदर को सब सुंदरि देखतेही डरकर पुकारी कि महाराज, यह कपि कहॉ से आया जो हमे डराय, हमारे वस्त्रो पर हग मूत रहा है। इतनी बात के सुनतेही बलदेवजी ने सरोवर से निकल जो हँसके ढेल चलाया, तो वह इनको मतवाला जान महा क्रोध कर किलकारी मार नीचे आया। आतेही उसने मद का भरा घड़ी जो तीर पर धरा था सो लुढ़ाय दिया औ सारे चीर फाड़ लीर लीर कर डाले। तब तो क्रोध कर बलरामजी ने हल मूसल सँभाले औ वह भी पर्वत सम हो प्रभु के सोही युद्ध करने को आये उपस्थित हुआ। इधर से ये हल मूसले चलाते थे औ उधर से वह पेड़ पर्वत।

महायुद्ध दोऊ मिल करै। नेक न कहूँ ठौर ते टरें॥

महाराज, ये तो दोनो बली अनेक अनेक प्रकार की घाते बाते कर निधड़क लड़ते थे, पर देखनेवालो को मारे भय के प्रानही निकलता था। निदान प्रभु ने सबको दुखित जान दुबिद को मार गिराया। उसके मरतेही सुर नर मुनि सबके जी को आनंद हुआ औ दुख दंद गया।

फूले देव पहुप बरसावैं। जै जै कर हलधरहि सुनावै॥