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अवस्था देखि बलरामजी करुना कर नयन में नीर भर लाए। आगे रथ की ध्वजा पताका देख श्रीकृष्णचंद औ बलरामजी का आना जान सब ग्वाल बाल दौड़ आए। प्रभु उनके आते ही रथ से उतर लगे एक एक के गले लग लग अति हित से क्षेम कुशल पूछने। इस बीच किसीने जा नंद जसोदा से कहा कि बलदेवजी आए। यह समाचार पाते ही नंद जसोदा औ बड़े बड़े गोप ग्वाल उठ धाए। उन्हे दूर से आते देख बलरामजी दौड़कर नंदराय के पाओ पर जाय गिरे, तब नंदजी ने अति आनंद कर नयनों में जल भर, बड़े प्यार से बलरामजी को उठाय कंठ से लगाया औ वियोग दुख गँवाया। पुनि प्रभु ने―

गहे चरन जसुमति के जाय। उन हित कर उरु लिये लगाय॥
भुज भरि भेट कंठ गहि रही। लोचन ते जल सरिता बही॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी ने राजा से कहा कि महाराज, ऐसे मिल जुल नंदरायजी बलरामजी को घर मे ले जाय कुशल क्षेम पूछने लगे कि कहो उग्रसेन बसुदेव आदि सब यादव औ श्रीकृष्णचंद आनंदकंद आनंद से हैं और कभी हमारी सुरत करते हैं। बलरामजी बोले कि आपकी कृपा से सब आनंद मंगल से है औ सदा सर्वदा आपका गुन गाते रहते है। इतना बचन सुन नंदराय चुप रहे। पुनि जसोदा रानी श्रीकृष्णजी की सुरत कर लोचन में नीर भर अति व्याकुल हो बोली कि बलदेव जी, हमारे प्यारे नैनो के तारे श्रीकृष्णजी अच्छे है। बलरामजी ने कहा―बहुत अच्छे हैं। पुनि नंदरानी कहने लगीं कि बलदेव. जब से हरि ह्यॉ से सिधारे तब से हमारी ऑख आगे अंधेरा ही रहा है, हम आठ पहर उन्हीं का ध्यान किये रहते है औ वे हमारी सुरत