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सुन तृग कहत जोर के हाथ। मेरौ धर्म दरौ जिन नाथ॥
पहले हौं भुगतोगौ पाप। तन धरकै सहिहौं संताप॥

इतनी बात के सुनते ही धर्मराज ने राजा नृग से कहा कि महाराज, तुमने अनजाने जो दान की हुई गाय फिर दान की, उसी पाप से आपको गिरगिट हो बन बीच गोमती तीर अंधे कुएँ में रहना हुआ। जब द्वापर के अंत में श्रीकृष्णचंद अवतार लेगे सब तुम्हे वे मोक्ष देगे। महाराज, इतना कह धर्मराज चुप रहा औ राजा नृग उसी समै गिरगिट हो अंधे कुएँ में जा गिरी औ व भक्षन कर कर वहॉ रहने लगा।

आगे कई जुग बीते द्वापर के अंत में श्रीकृष्णाचंदजी ने अवतार लिया औ ब्रजलीला कर जब द्वारका को गए ओ उनके बेटे पोते भए. तब एक दिन कितने एक श्रीकृष्णजी के बेटे पोते मिल अहेर को गए औ बन मे अहेर करते करते प्यासे भए! दैवी, दे बन में जल ढूँढ़ते ढूँढ़ते उसी अंधे कुएँ पर गए, जहॉ राजा नृग गिरगिट का जन्म ले रहा था। कुएँ में झाँकते ही एक ने पुकार सब से कहा कि अरे भाई, देखो इस कूप में कितना बड़ा एक गिरगिट हैं।

इतनी बात के सुनते हीं सब दौड़ आए औ कुएँ के मनघटे पर खड़े हो लगे पगड़ी फेटे मिलाय मिलाय लटकाय लटकाय उसे काढ़ने औ आपस में यो कहने कि भाई इसे बिन कुएँ से निकाले हम यहॉ से न जायँगे। महाराज, जब वह पगड़ी फेटो की रस्सी से न निकला तब उन्होने गाँव से सन, सूत, मूंज, चाम की मोटी मोटी भारी वरते मँगवाई और कुएँँ में फॉस गिरगिट को बॉध चलकर खैंचने लगे, पर वह वहाँ से टसका भी