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समेत अनेक अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र लिये पैदलो का दल टीड़ी दूल सा चला जाता था। उनके मध्य मध्य धौसे, ढोल, डफ, बाँसुरी, भेर, नरसिगो का जो शब्द होता था सो अतिही सुहावन लगता था।

उड़ी रेनु आकाश लो छाई। छिप्यौ भानु भयौ निस के भाई॥
चकवी चकवा भयौ वियोग। सुन्दरि करें कंत सो भोग॥
फूले कुमुद कमल कुम्हलाने। निसघर फिरहिं निसा जियजाने॥

इतनी कया कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जिस समैं बलरामजी बारह अक्षौहिनी सेना ले अति धूम धाम से उसके गढ़ गढ़ी कोट तोड़ते औ देस उजाड़ते जा सोनितपुर मे पहुँचे और श्रीकृष्णचंद औ प्रद्युम्नजी भी आन मिले, तिसी समैं किसी ने अति भय खाय खबराय, जाये हाथ जोड़ सिरनाय बानासुर से कहा कि महाराज, कृष्ण बलराम अपनी सब सेना ले चढ़ आए औ उन्होने हमारे देस के गढ़, गढ़ी, कोट ढाय गिराए औ नगर को चारो ओर से आय घेरा, अब क्या आज्ञा होती है।

इतनी बात के सुनते ही बानासुर महा क्रोध कर अपने बड़े बड़े राक्षसों को बुलाय बोला―तुम सब दल अपना ले जाय, नगर के बाहर जाय कृष्ण बलराम के सनमुख खड़े हो पीछे से मै भी आता हूँ। महाराज, आज्ञा पाते ही वे असुर बात की बात में बारह अक्षौहनी सेना ले श्रीकृष्ण बलरामजी के सोही लड़ने को शस्त्र अस्त्र लिये आ खड़े रहे। उनके पीछे ही श्रीमहादेवजी का भजन सुमिरन ध्यान कर बानासुर भी आ उपस्थित हुआ।

शुकदेव मुनि बोले कि महाराज, ध्यान के करतेही शिवजी का आसन डोला औ ध्यान छूटा, तो उन्होने ध्यान धर जाना