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भली बुरी होवे सो होय। होनहार मेटै नहिं कोय॥
कछू न बात कुँवरि की कहियै। चुप है देख बैठ ही रहियै॥

महाराज, द्वारपाल आपस में ये बाते करतेही थे कि कई एक जोधा साथ लिये फिरता फिरता बानासुर वहॉ आ निकला और मंदिर के ऊपर दृष्ट कर शिवजी की दी हुई ध्वजा न देख बोला―यहॉ से ध्वजा क्या हुई? द्वारपालो ने उत्तर दिया कि महाराज, वह तो बहुत दिन हुए कि टूटकर गिर पड़ी। इस बात के सुनतेही शिवजी का बचन स्मरन कर भावित हो बानासुर बोला―

कब की ध्वजा पताका गिरी। बैरी कहूँ औतच्यो हरी॥

इतना बचन बानासुर के मुख से निकलते ही एक द्वारपाल सनमुख जा खड़ा हो हाथ जोड़ सिर नाय बोला कि महाराज, एक बात है, पर वह मैं कह नहीं सकता, जो आपकी आज्ञा पाऊँ तो जों की तो कह सुनाऊँ। बानासुर ने आज्ञों की―अच्छा कह। तब पौरिया बोला कि महाराज, अपराध क्षमा। कई दिन से हम देखते है कि राजकन्या के मंदिर में कोई पुरुष आया है, वह दिन रात बाते किया करता है. इसका भेद हम नहीं जानते कि वह कौन पुरुष है औ कब कहाँ से आया है और क्या करता है? इतनी बात के सुनते प्रमान बानासुर अति क्रोध कर शस्त्र उठाय, दुबे पाओ अकेला ऊषा के मंदिर में जाय छिपकर क्या देखता है। कि एक पुरुष स्यामवरन, अतिं सुंदर, पीतपट ओढे निद्रा में अचेत ऊषा के साथ सोया पड़ा है।

सोचत बानासुर यो हिये। होय पाप सोवत वध किये॥

महाराज, यो मनही मन विचार आनासुर ने तो कई एक रखवाले वहॉ रख, उनसे यह कहा कि तुम इसके जागतेही हमें