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तुलसी की माला गले मे डाल, हाथ मे बड़े बड़े तुलसी के हीरों की सुमिरन ले, ऊपर से हीरावल ओढ़, कॉख में आसन लपेटी भगवतगीता की पोथी दुबाय, परम भक्त बैष्णव का भेष बनाय, ऊपा को यो सुनाय, सिर नाय विदा हो द्वारका को चली।

पैड़े अब आकाश के, अँँतरिक्ष है जाउँ।
ल्याऊँ तेरे कंत कौ, चित्ररेख तो नाऊँ॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, चित्ररेखा अपनी माया कर, पवन के तुरंग पर चढ़ अँधेरी रात में श्याम घटा के साथ बात की बात में द्वारका पुरी में जा बिजली सी चमकी औ श्रीकृष्णचंद के मंदिर में घड़ गई, ऐसे कि इसका जाना किसी ने न जाना। आगे वह ढूँढ़ती ढूँढ़ती वहॉ गई, जहॉ पलंग पर सोए अनरूद्धजी अकेले स्वप्न में ऊषा के साथ बिहार कर रहे थे, इसने देखतेही झट उस सोते का पलंग उठाय चट अपनी बाट ली।

सोवत ही परजंक समेत। लिये जात ऊषा के हेत॥
अनरुद्ध कौ लै आई तहाँ। ऊषा चिंतित बैठी जहाँ॥

महाराज, पलंग समेत अनरुद्ध को देखतेही अषा पहले तो हकवकाय चित्ररेखा के पॉवों पर जाय गिरी, पीछे यो कहने लगी-धन्य है धन्य है सखी, तेरे साहस औ पराक्रम को जो ऐसी कठिन ठौर जाये बात की बात में पलंग समेत उठा लाई औ अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। मेरे लिये तैने इतना कष्ट किया, इसका पलटा मैं तुझे नहीं दे सकती, तेरे गुन की ऋनियॉ रही।

चित्ररेखा बोली―सखी, संसार में बड़ा सुख यही है जो पर को सुख दीजे औ कारज भी भला यही है कि उपकार कीजै।

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