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सब सामा मँगवाय भगवाय इकट्ठी करवाने लगे। कई एक दिन में जब सामान उपस्थित हो चुका, तब बड़ी धूमधाम से प्रभु बारात ले द्वारका से भोजकट नगर को चले।

उस काल एक झमझमाते रथ पर तो श्रीरुक्मिनीज पुत्र पत्र को लिये बैठी जाती थी औ एक रथ पर श्रीकृष्णचंद औ बलराम बैठे जाते थे। निदान कितने एक दिनों में सब समेत प्रभु वहाँ पहुँचे। महाराज, बरात के पहुँचतेही रुक्म केलिगादि सब देस देस के राजाओं को साथ ले नगर के बाहर जाय, अगौनी कर सर्बको बागे पहराय, अति आदर मान कर जनवासे में लिवाय लाया। आगे सबको खिलाय पिलाय मढ़ के नीचे लिवाय ले गया औ उसने बेद की विधि से कन्यादान किया। विसके यौतुक में जो दान दिया उसको मैं कहाँ तक कहूँ, वह अकथ है।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी बोले—महाराज, व्याह के हो चुकतही राजा भीष्मक ने जनवासे मे जाये हाथ जोड़ अति बिनती कर, श्रीकृष्णचंदर्जी से चुपचुपाते कहा—महाराज, बिवाह हो चुका औ रस रहा, अब आप शीघ्र चलने का विचार कीजे क्यौकि-

भूप सगे जे रुक्म बुलाए। ते सब दुष्ट उपाधी आए॥
मत काहू सो उपजे रारि। याही ते हो कहत मुरारि॥

इतनी बात कह जो राजा भीष्मक गए तो ही श्री रुक्मिनीजी के निकट रुक्म आया।

कहत रुक्मिनी देर कर, किम घर पहुँचे जाय।
बैरी भूपति पाहुने, जुरे तिहारे आय॥
जौ तुम भैया चाहौ भलौ। हुमहि बेग पहुँचावन चलौ॥