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के पुत्र हुआ उस काल श्रीकृष्णजी ने जोतिषियों को बुलाय, सब कुटुंब के लोगो को बैठाय, मंगलाचार करवाय शास्त्र की रीति से नामकरन किया। जोतिषियो ने पत्रा देख बरष, मास, पक्ष, दिन, तिथि, घड़ी लग्न, नक्षत्र ठहराय उस लड़के का नाम अनरुद्ध रक्खा। उस काल

फूले अँग न समैँइ, दान दक्षिना द्विजन कौ।
देत न कृष्ण अघाँइ, प्रद्युम्न के बेटा भयौ॥

महाराज, नाती के होने का समाचार पाय पहले तो रुकने बहन बहनोई को अति हित कर यह पत्री में लिख भेजा कि तुम्हारे पोते से हमारी पोती का ब्याह हो तो बड़ा आनंद है और पीछे एक ब्राह्मन को बुलाय, रोली, अक्षत, रुपया, नारियल दे उसे समझायके कहा कि तुम द्वारकापुरी में जाय, हमारी ओर से अति बिनती कर, श्रीकृष्णजी का पौत्र अनरुद्ध जो हमारा दोहता है, तिसे टीका दे आओ। बात के सुनतेही ब्राह्मन टीका लग्न साथही ले चला चला श्रीकृष्णचंद् के पास द्वारका पुरी में गया। विसे देख प्रभु ने अति मान सनमान कर पूछा कि कहो देवता, आपका आना कहाँ से हुआ? ब्राह्मन बोला-महाराज, मै राजा भीष्मक के पुत्र रुक्म का पठाया उनकी पौत्री औ आपके पौत्र से संबंध करने को टीका औ लग्न ले आया हूँ।

इस बात के सुनतेही श्रीकृष्णजी ने दस भाइयो को बुलाय, टीका औ लग्न ले विस ब्राह्मन को बहुत कुछ दे विदा किया और आप बलरामजी के निकट जाय चलने का विचार करने लगे।

निदान वे दोनों भाई वहाँ से उठ, राजा उग्रसेन के पास जाय, सब समाचार सुनाय, उनसे विदा हो बाहर आय बरात की

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