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महाराज, वह तो अति बल कर इनपर गदा चलाता था और श्रीकृष्णजी के शरीर में उसकी चोट यो लगती थी कि जो हाथी के अंग में फूलछड़ी। आगे वह अनेक अनेक प्रश्न शस्त्र ले प्रभु से लड़ा औ प्रभु ने सब काट डाले। तब वह फिर घर जाय एक त्रिशूल ले आया औ युद्ध करने को उपस्थित हुआ।

तब सतिभामा टेर सुनाई। अब किन याहि हतौ यदुराई॥ बचन सुनत प्रभु चक्र संभार्यौ। काटि सीस भौमासुर मार्यौ॥ कुण्डल मुकुट सहित सिर पर्यौ। धर के गिरत शेष थरहर्यौ॥ तिहूँ लोक में आनंद भयौ। सोच दुःख सबही को गयौं। तासु जोति हरि देह समानी। जै जै शब्द करैं सुर ज्ञानी॥ घिरे विमान पुहुप बरसावै। वेद बखानि देव जस गावैं॥

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, भौमासुर के मरतेही भूमि औ भौमासुर की स्त्री पुत्र समेत आय प्रभु के सनमुख हाथ जोड़, सिर नवाय, अति बिनती कर कहने लगी-हे जोतीस्वरूप ब्रह्मरूप, भक्तहितकारी तुम साध संत के हेतु धरते हो भेष अनंत, तुम्हारी महिमा, लीला, माया है अपरंपार, तिसे कौन जाने और किसे इतनी सामर्थ है जो बिन कृपा तुम्हारी विसे बखाने। तुम सब देवो के हो देव, कोई नहीं जानता तुम्हारा भेव।

महाराज, ऐसे कह छत्र कुंडल पृथ्वी प्रभु के आगे धर फिर बोली-दीनानाथ, दीनबंधु, कृपासिन्धु, यह सुभगदंत*[१] भौमासुर का बेटा आपकी सरन आया है अब करुना कर अपना कोमल कमल सा कर इसके सीस पर दीजे औ अपने भय से इसे निर्भय कीजे। इतनी बात के सुनतेही करुनानिधान श्रीकान्ह ने करुना


  1. * (ख) में केवल "भगदंत है।