पृष्ठ:प्रेमसागर.pdf/२९९

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२५३)


प्रनाम कर अति गिड़गिड़ायके बोला-हे प्रभु, हे प्रभु, इस आग से बचाय बेग मेरी रक्षा करो।

चरी अग्नि पायौ सतोष। अब तुम मानौं जिन कछु दोष॥
मेरी बिनती मन में लाऔ। बैसंदर ते मोहि बचाऔ॥

महारा, इतनी बात मय दैत्य के मुख से विकलतेही अग्नि वान बैसदर ने धरे औ अर्जुन भी सूचक रहे खड़े। निदान वे दोनो मय को साथ ले श्रीकृष्णचंद आनंदकंद के निकट जा बोले कि महाराज,

यह मय असुर आयह काम। तुम्हारे लये बनैहै धाम॥
अबही सुध तुम मय की लेहु। अग्नि बुझाय अभय कर देहु॥

इतनी बात कह अर्जुन ने गांडीव धनुष सर समेत हाथ से भूमि मे रक्खा, तब प्रभु ने आग की ओर आँख दबाय सैन की। वह तुरन्त बुझ गई औ सारे बन मे सीतलता हुई। फिर श्रीकृष्णचंद अर्जुन सहित मय को साथ ले आगे बढ़े वहाँ जाय मय ने कंचन के मनिमय मंदिर अति सुंदर, सुहावने, मनभावने, क्षिन भर में बनाय खड़े किये, ऐसे कि जिनकी शोभा कुछ बरनी नहीं जाती, जो देखने को आता सो चकित हो चित्र सा खड़ा रह जाता। आगे श्रीकृष्णजी वहाँ चार महीने बिरमे, पीछे वहाँ से चल कहाँ पाए कि जहाँ राजसभा मे राजा युधिष्ठिर बैठे थे। आतेही प्रभु ने राजा से द्वारका जाने की आज्ञा माँगी। यह बात श्रीकृष्णचंद के मुख से निकलतेही सभा समेत राजा युधिष्ठिर अति उदास हुए औ सारे रनवास में भी क्या स्त्री क्या पुरुष सब चिंता करने लगे। निदान प्रभु सबको यथायोग्य समझाय बुझाय, आसा भरोसा दे अर्जुन को साथ ले युधिष्ठिर से बिदा हो