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आधी रात को श्रीकृष्णचंद के भेद में द्वारकापुरी से भागे, ऐसे कि किसी ने न जाना कि किधर गये। भोर होते ही सारे नगर में यह चरचा फैली कि न जानिये रात की रात में अक्रूर औ कृतवर्मा कुटुँब समेत किधर गये और क्या हुए।

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, इधर द्वारकापुरी मे तो नित घर घर यह चरचा होने लगी और उधर अक्रूर जी प्रथम प्रयाग मे जाय, मुडन करवाय, त्रिवेनी न्हाय, बहुत सा दान पुन्य कर, तहाँ हरि पैड़ी बंधवाय गया को गये। वहाँ भी फलगू नदी के तीर बैठ शास्त्र की रीति से श्राद्ध किया औ गयालियो को जिमाय बहुत ही दान दिया। पुनि गदाधर के दरसन कर तहाँ से चल काशीपुरी मे आए। इनके पाने का समाचार पाय इधर उधर के राजा सब आय आय भेटकर भेट धरने लगे औं ये वहाँ यज्ञ, दान, तप, व्रत कर रहने लगे।

इसमे कितने एक दिन बीते श्रीमुरारी भक्तहितकारी ने अक्रूर जी का बुलाना जी मे ठान, बलरामजी से आनके कहा कि भाई, अव प्रजा को कुछ दुख दीजे और अक्रूरजी को बुलवा लीजे। बलदेवजी बोले-महाराज, जो आपकी इच्छा मे आवै सो कीजे औ साधो को सुख दीजे। इतनी बात बलरामजी के मुख से निकलते ही, श्रीकृष्णचंदजी ने ऐसा किया कि द्वारकापुरी मे घर वर तप, तिजारी, मिरगी, क्षई, दाद, खाज, आधासीसी, कोढ़, महाकोढ़, जलंधर, भगंदर, कठंदर, अतिसार, आँव, मड़ोड़ा, खाँसी, सूल, अर्द्धांग, सीतांग, झोला, सन्निपात आदि व्याधि फैल गई।

और चार महीने वर्षा भी न हुई, तिससे सारे नगर के नदी, नाले, सरोवर सूख गये। तृन अन्न भी कुछ न उपजा, नभचर,