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प्रमान है। इतना बचन प्रभु के मुख से निकलतेही जामवंत ने पहले तो श्रीकृष्णचंद को चंदन, अक्षत, पुष्प धूप, दीप, नैवेद्य ले पूजा की, पीछे वेद की विध से अपनी बेटी ब्याह दी और उसके यौतुक में वह मनि भी धर दी।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेव मुनि बोले कि हे राजा, श्रीकृष्णचंद आनंदकंद तो मनि समेत जामवंती को ले यो गुफा से चले और जो यादव गुफा के मुँह पर प्रसेन औ श्रीकृष्ण के साथी खड़े थे, अब तिनको कथा सुनिये। गुफा के बाहर उन्हें जब अट्ठाइस दिन बीते श्री हरि न आए, तब वे वहाँ से निरास हो अनेक प्रकार की चिन्ता करते और रोते पीटते द्वारका में आए। ये समाचार पाय सब यदुबंसी निपट घबराए औ श्रीकृष्ण का नाम ले ले महाशोक कर कर रोने पीटने लगे औ सारे रनवास मे कुहराम पड़ गया। निदान सब रानियाँ अति व्याकुल हो तन छीन मन मलीन राजमंदिर से निकल रोती पीटती वहाँ आई जहाँ नगर के बाहर एक कोस पर देवी का मंदिर था।

पूजा कर, गौर को मनाय, हाथ जोड़, सिर नाय कहने लगीं-हे देवी, तुझे सुर, नर, मुनि सब ध्यावते हैं औ तुझसे जो बर मांगते हैं सो पावते हैं। तू भूत, भविष्य, वर्तमान की सब बात जनती है, वह श्रीकृष्णचंद आनंदकंद कब आवेगे। महाराज, बस रानियों तो देवी के द्वार धरना दे यों मनाय रही थीं औ उग्रसेन, बासुदेव, बलदेव आदि सब यादव महाचिन्ता मे बैठे थे कि इस बीच श्रीकृण अविनासी द्वारकाबासी हँसते हँसते जामवंती को लिये आय राजसभा में खड़े हुए। प्रभु का चंदमुख देख सबको अनंद हुआ औ यह शुम समाचार पाय सब रानियाँ