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हमकौं त्याग अकलौ धायौ। जहाँ गयौ तहाँ खोज न पायौ॥
कहत न बने ढूँढ़ फिर आए। कहूँ प्रसेन न बन मे पाए॥

इतनी बात के सुनतेही सत्राजीत खाना पीना छोड़ अति उदास हो चिता कर मनहीं मन कहने लगा कि यह काम श्रीकृष्ण का है जो मेरे भाई को मनि के लिए मार, मनि ले घर मे आय बैठा है। पहले मुझसे माँगता था मैने न दी, अब उसने यो ली। ऐसे वह मनही मन कहै और रात दिन महा चिंता मे रहै। एक दिन वह रात्रि समै स्त्री के पास सेज पर तन छीन, मन मलीन, मष्ट मारे बैठा मनही मन कुछ सोच विचार करता था कि उसकी नारी ने कहा-

कहा कंत मन सोचत रहौ। मोसो भेद आपनो कहौ॥

सत्राजीत बोला कि स्त्री से कठिन बात का भेद कहना उचित नहीं, क्यौकि इसके पेट मे बात नहीं रहती। जो घर मे सुनती है सो बाहर प्रकाश कर देती है। यह अज्ञान, इसे किसी बात का ज्ञान नहीं, भला हो कै बुरा। इतनी बात के सुनतेही सनाजीत की स्त्री खिजलाकर बोली कि मैने कब कोई बात घर में सुन बाहर कही है जो तुम कहते हो, क्या सब नारी समान होती है। यो सुनाय फिर उसने कहा कि जब तक तुम अपने मन की बात मेरे आगे न कहोगे, तब तक मैं अन्न पानी भी न खाऊँगी। यह बचन नारी से सुन सत्राजीत बोला कि झूठ सच्च की तो भगवान जाने पर मेरे मन में एक बात आई है, सो मै तेरे आगे कहता हूँ परंतु तू किसूके सोही मत कहियो। उसकी स्त्री बोली-अच्छा में न कहूँगी।

सत्राजीत कहने लगा कि एक दिन श्रीकृष्णाजी ने मुझसे