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पंडिस तहाँ बेद उच्चरें। रुक्मिनी संग हरि भाँवर फिरे॥ ढोल दुँदुभी भेर बजावे। हरषहिं देव पुहुप बरसावे॥ सिद्ध साध चारन गंधर्व। अंतरिक्ष भये देखैं सर्व॥ चढ़े विमान घिरे सिर नावे। देवबधू सब मंगल गावें॥ हथि गह्यौ प्रभु भाँवर पारी। बाम अंग रुक्मिनी बैठारी॥ छोरी गाँठ पटा फेर दियो। कुल देवी कौ तब पूजियो॥ छोरत कंकन हरि सुंदरि। खेलत दूधाभाती करी॥ अति आनंद रच्यो जगदीस। निरपि हरषि सब देहि असोस॥ हरि रुक्मिनी जोरि चिरजियो। जिनको चरित सुधारस पियौ॥ दीनौ दान विप्र जो आये। मागध बंदजन पहिराये॥ जो नृप देस देस के आये। दीनी बिदा सबै पहुँचाये॥

इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले कि महाराज, जो जन हरि रुक्मिनी का चरित्र पढे सुनेगा औ पढ़ सुनके सुमिरन करेगा, सो भक्ति, मुक्ति, जस पावेगा। पुनि जो फल होता है अश्वमेधादि यज्ञ, गौ आदि दान, गंगादि स्नान, प्रयागादि तीर्थ के करने में, सोई फल मिलता है, हरि कथा कहने सुनने में