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प्रेमरंगराती लिख उसके हाथ दी और कहा कि श्रीकृष्णचंद आनंद कंद को पाती दे, मेरी ओर से कहियो कि उस दासी ने कर जोड़ अति बिनती कर कहा है, जो आप अंतरजामी है, घट घट की जानते हैं, अधिक क्या कहूँगी। मैंने तुम्हारी सरन ली है, अब मेरी लाज तुम्हैं है, जिसमे रहै सो कीजे, और इस दासी को आय वेग दरसन दीजे।

महाराज, ऐसे कह सुन जब रुक्मिनीजी ने उस ब्राह्मन को बिदा किया, तब वह प्रभु का ध्यान कर नाम लेता द्वारका को चला और हर इच्छा से बात कहते जा पहुँचा। वहाँ जाय देखे तो समुद्र के बीच वह पुरी हैं, जिसके चहुँ ओर बड़े बड़े पर्वत औ बन उपवन शोभा दे रहे हैं, तिनमें भाँति भाँति के पशु पक्षी बोल रहे हैं औ निरमल जल भरे सुथरे सरोवर, उनमें कँबल डहुडहाय रहे, विनपर भौंरो के झुंड के झुंड गूँज रहे। और तीर पै हँस सारस आदि पक्षी कलोले कर रहे। कोसों तक अनेक अनेक प्रकार के फल फूलों की बाड़ियाँ चली गई है, तिनकी बाड़ो पर पनवाड़ियाँ लहलहा रही हैं। बावड़ी, इंदारों पै खड़े मीठे सुरो से गाय गाय माली रँहट परोहे चलाय चलाय ऊँचे नीचे नीर सोच रहे हैं, और पनघटो पर पनहारियो के लट्ठ के लट्ठ लगे हुए हैं।

यह छबि निरख हरष, वह ब्राह्मन जो आगे बढ़ा तो देखता क्या है कि नगर के चारो ओर अति ऊँचा कोद, उसमें चार फाटक, तिनमें कंचनखचित जड़ाऊ किबाड़ लगे हुए हैं औ पुरी के भीतर चाँदी सोने के मनिमय पचखने, सतखने मंदिर, ऊँचे ऐसे कि आकाश से बाते करे, जगमगाय रहे है। तिनके कुलस