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मेरे आगे फेर कृष्ण का नाम भी न लीजे। इतनी बात के सुनतेही सब सभा के लोग मारे डर के मनही मन अछता पछता के चुप हो रहे, और जो भीष्मक भी कुछ न बोला। इसमें रुक्स ने जोतिषी को बोलाय शुम दिन लग्न ठहराय, एक ब्राह्मन के हाथ राजा सिसुपाल के यहाँ टीका भेज दिया। वह ब्राह्मन टीका लिये चला चला नगर चंदेरी में जाय राजा सिसुपाल की सभा में पहुँचा। देखतेही राजा ने प्रनाम कर जब ब्राह्मन से पूछा―कहो देक्ता, आपका आना कहाँ से हुआ और यहाँ किस मनोरथ के लिये आए? तब तो उस विप्र ने असीस दे अपने जाने का सब व्यौरा कहा। सुन्तेही प्रसन्न हो राजा सिसुपातल ने अपना पुरोहित बुलाय टीका लिया, औ बिस ब्राह्मन को बहुत सा कुछ दे बिदा किया पीछे जरासंघ आदि सब देस देस के नरेसो को नोत बुलाय, वे अपना दल ले ले आए, तब यह भी अपना सब कटक ले ब्याहन चढ़ा। उस ब्राह्मन ने आ राजा भीष्मक से कहा जो टीका लेगया था, कि महाराज, मैं राजा सिसुपील को टीका दे आया, वह बड़ी धूमधाम से बरात ले व्याहन को आता है आप अपना कार्य कीजे।


यह सुन राजा भीष्मक पहले तो निपट उदास हुए, पीछे कुछ सोच समझ मन्दिर में जाय उन्होंने पटरानी से कहा। वह सुनकर लगी मंगलामुखी औ कुटुंब की नारियों को बुलवाय, मंगलाचार करवाये ब्याह की सब रीति भाँति करने। फिर राजा ने बाहर आ, प्रधान औ मंन्त्रियों को आज्ञा दी कि कन्या के विवाह में हमैं जो जो वस्तु चाहिए सो सो सब इकट्ठी करो। राजा की आज्ञा पातेही मन्त्री औ प्रधानों ने सच वस्तु बात की