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चढ़ी अटा रुक्मिनी सुंदरी। हरिचरित्र धुन श्रवननि परी॥
अचरज करै भूलि मन रहै। फेर उझककर देखनि चहै॥
सुनकै कुंवरि रही मन लाय। प्रेमलता उर उपजी आय॥
भई मगन बिहवल सुंदरी। बाकी सुध बुध हरिगुन हरी॥

यो कह श्रीशुकदेवजी बोले कि पृवीनाथ, इस भाँति श्रीरुक्मिनी जी ने प्रभु का जस औ नाम सुना, तो विसी दिन से रात दिन आठ पहर चौसट घड़ी सोते, जागते, बैठे, खड़े, चलते फिरते, खाते, पीते, खेलते विन्हींका ध्यान किये रहे, और गुन गाया करे। नित भोरही उठे, स्नान कर मट्टी की गौर बनाय, रोली, अक्षत, पुष्प चढ़ाय, धूप, दीप, नैवेद कर, मनाय, हाथ जोड़, सिर नाय उसके आगे कहा करे।

मो पर गौरी कृपा तुम करौ। यदुपति पति दे मम दुख हरौ॥

इसी रीति से सदा रुक्मिनी रहने लगी। एक दिन सखियों के संग खेलती थी कि राजा भीष्मक उसे देख अपने मन में चिंता कर कहने लगा कि अब यह हुई ब्याहन जोम, इसे शीघ्र कहीं न दीजे तो हँसेगे लोग। कहा है कि जिसके घर में कन्या बड़ी होय तिसका दान, पुन्य, जप, तप करना वृथा है, क्योकि किये से तब तक कुछ धर्म नहीं होता, जब तक कन्या के ऋिन से न उतरन होय। यो बिचार राजा भीष्मक अपनी सभा में सब मंत्री औ कुटुम्ब के लोगों को बुलाय बोले―भाइयो, कन्या ब्याहन जोग हुई, इसके लिये कुलवान, गुनखान, रूपनिधान, शीलवान, कहीं बर ढूँढ़ा चाहिये।

इतनी बात के सुनते ही विन लोगों ने अनेक अनेक देशो के नरेसो के कुछ गुन, रूप औ पराक्रम कह सुनाए पर राजा