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इतना बचन जरासन्ध के मुख से निकलते ही सब असुरों ने उस पहाड़ को जा घेरा और नगर नगर गाँव गाँव से काठ कबाड़ लाय लाय उसके चारो ओर चुन दिया, तिसपर गड़गूदड़ घी तेल से भिंगो डालकर आग लगा दी। जब वह आग पर्वत की चोटी तक लहकी तब उन दोनों भाइयों ने वहाँ से इस भाँति द्वारका की बाट ली कि किसी ने उन्हें जाते भी न देखा, और पहाड़ जलकर भस्म हो गया। उस काल जरासन्ध श्रीकृष्ण बलराम को उस पर्वत के संग जल भरा जान, अत्ति सुख मान, सब दुल साथ ले मथुरापुरी में आया, और वहाँ का राज ले नगर में ढँढोरा दे उसने अपना थाना बैठाया। जितने उग्रसेन बसुदेव के पुराने मंदिर थे सो सब ढवाए, और उसनें आप अपने नये बनवाए।

इतनी कथा सुनाय श्रीसुकदेवजी ने राजा से कहा कि महा- राज इस रीति से जरासंध को धोखा दे श्रीकृष्ण बलरामजी तो द्वारका में जाय बसे, और जरासंघ भी मथुरा नगरी से चल सब सेना ले अति आनंद करता निसंक हो अपने घर आया।