श्रीशुकदेव मुनि बोले कि महाराज, ब्रजमंडल में आतेही श्रीकृष्णचंद ने बलरामजी को तो मथुरा में छोड़ा आप रूपसागर, जगतउजागर, पीतांबर पहने, पीतपट ओढ़े, सब सिगार किये, कालयवन के दल मे जाय उसके सन्मुख हो निकले। वह इन्हे देखतेही अपने मन मे कहने लगा कि हो न हो चही कृष्ण है, नारद मुनि ने जो चिह्न बताते थे सो सब इसमे पाये जाते हैं। इन्होने कंसादि असुर मारे, जरासंध की सब सेना हनी। ऐसे मनही मना बिचार―
कालयवन यो कहै पुकारि। काहे भागे जात मुरारि॥
आय पच्यौ अब मोसो काम। ठाढ़े रहौ करौ संग्राम॥
जरासंध हो नाहीं कंस। यादवकुल कौ करौ विध्वंस॥
हे राज, यो कह कालयवन अति अभिमान कर अपनी सब सेना को छोड़ अकेला श्रीकृष्णचंद के पीछे धाया, पर उस मूरख ने प्रभु का भेद न पाया। आगे आगे तो हरि भाजे जाते थे औ एक हाथ के अन्तर से पीछे पीछे वह दौड़ा जाता था। निदान भागते भागते जब अनेक दूर निकल गये तब प्रभु एक पहाड़ की गुफा में अड़ गये, वहां जो देखे तो एक पुरुष सोया पड़ा है। ये झट अपना पीतांबर उसे उढ़ाय आप अलग एक ओर छिप रहे। पीछे से कालयवन भी दौड़ती हॉफता उस अति अँँधेरे कंदरा में जा पहुँचा, औ पीतांबर ओढ़े विस पुरुष को सोता देख इसने अपने जी में जाना कि यह कृष्ण ही छलकर सो रहा है।